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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    या गौर्व॑र्त॒निं प॒र्येति॑ निष्कृ॒तं पयो॒ दुहा॑ना व्रत॒नीर॑वा॒रत॑: । सा प्र॑ब्रुवा॒णा वरु॑णाय दा॒शुषे॑ दे॒वेभ्यो॑ दाशद्ध॒विषा॑ वि॒वस्व॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । गौः । व॒र्त॒निम् । प॒रि॒ऽएति॑ । निः॒ऽकृ॒तम् । पयः॑ । दुहा॑ना । व्र॒त॒ऽनीः । अ॒वा॒रतः॑ । सा । प्र॒ऽब्रु॒वा॒णा । वरु॑णाय । दा॒शुषे॑ । दे॒वेभ्यः॑ । दा॒श॒त् । ह॒विषा॑ । वि॒वस्व॑ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या गौर्वर्तनिं पर्येति निष्कृतं पयो दुहाना व्रतनीरवारत: । सा प्रब्रुवाणा वरुणाय दाशुषे देवेभ्यो दाशद्धविषा विवस्वते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या । गौः । वर्तनिम् । परिऽएति । निःऽकृतम् । पयः । दुहाना । व्रतऽनीः । अवारतः । सा । प्रऽब्रुवाणा । वरुणाय । दाशुषे । देवेभ्यः । दाशत् । हविषा । विवस्वते ॥ १०.६५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (या गौः) जो वाणी (वर्तनिं पर्येति) सत्यमार्ग को परिप्राप्त होती है (अवारतः) बिना अवरोध के (व्रतनीः) कर्म की नेत्री व्यवहार चलानेवाली (निष्कृतं पयः-दुहाना) संस्कृत ज्ञानरूप दूध को दुहती हुई (सा) वह वाणी (दाशुषे वरुणाय विवस्वते) कर्मफलदाता, आनन्ददाता, वरणीय, अपने में विशिष्ट वास देनेवाले परमात्मा के लिए (देवेभ्यः) और अग्नि आदि देवों के लिए (हविषा प्रब्रुवाणा) उनके ज्ञान के लिए प्रार्थना से प्रवचन करती हुई होवे ॥६॥

    भावार्थ

    वाणी सत्यत्व को प्राप्त करती है। बिना रुकावट के ज्ञानरूप दूध को दुहती हुई व्यवहार चलानेवाली है। इस वाणी से परमात्मा की स्तुति आदि की जाती है और अग्नि आदि देवों का गुणवर्णन किया जाता है, इसका उचित प्रयोग करना चाहिए ॥६॥

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    विषय

    पृथ्वी के परि भ्रमण से ऋतुओं की उत्पत्ति आदि का वर्णन।

    भावार्थ

    (या) जो (गौः) भूमि, (निष्कृतम्) ठीक प्रकार से बने (वर्त्तनिम्) मार्ग को (परि एति) तय करती है, जो (पयः दुहाना) गौ के समान ही संसार के प्राणियों के लिये पुष्टिकारक जल प्रदान करती हुई (अवारतः) निरन्तर (व्रत-नीः) अन्न भी प्राप्त कराती है (सा) वह (वरुणाय) सर्वश्रेष्ठ, पतिवत् वरण करने योग्य (विवस्वते) विविध लोकों के स्वामी, (दाशुषे) प्रकाश, शक्ति आदि के देने वाले महान् सूर्य के सामर्थ्य को (प्रव्रुवाणा) बतलाती हुई (देवेभ्यः) जीवों के लिये (हविषा) नाना अन्न से (दाशत्) जीवन प्रदान करती है। अर्थात् पृथिवी स्वयं आकाश परिभ्रमण से ही सूर्य के महान् सामर्थ्य का पता देती है, उसी भ्रमण से ऋतुएं और अनेक धन-धान्य, वनस्पति आदि उत्पन्न होती हैं जिनसे प्राणी अन्न, जल पाते और जीते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    वेदवाणी

    पदार्थ

    [१] (या) = जो (गौः) = वेदवाणी (निष्कृतम्) = संस्कृत (वर्तनिम्) = मार्ग का (पर्येति) = लक्ष्य करके चलती है, अर्थात् यह वेदवाणी हमारे लिये उस मार्ग का उपदेश करती है जो मार्ग बड़ा परिष्कृत होता है । यह वेदवाणी (पयः दुहाना) = ज्ञानदुग्ध का दोहन करती है और (अवारत:) = बिना विघ्नों के या रुकावट के (व्रतनी:) = यह हमें व्रतों की ओर ले चलती है। वस्तुतः ज्ञान कर्मों में पवित्रता को लाता है और हमारे कर्म 'व्रत व नियम' का रूप धारण कर लेते हैं । [२] (सा) = वह वेदवाणी (वरुणाय) = द्वेष-निवारण के लिये (प्रब्रुवाणा) = उपदेश देती हुई (देवेभ्यः दाशुषे) = देवों के प्रति अपना अर्पण करनेवाले के लिये और (हविषा विवस्वते) = हवि के द्वारा प्रभु का उपासन करनेवाले के लिये (दाशत्) = सब आवश्यक सम्पत्तियों को प्राप्त कराती है। देवों के प्रति अपने को देने का अभिप्राय यह है कि पाँचवें वर्ष तक 'मातृ देवो भव' के अनुसार वह माता के प्रति अपने को देनेवाला बने। इसी प्रकार आठवें वर्ष तक 'पितृ देवो भव' पिता के प्रति अपना अर्पण करे और पच्चीसवें वर्ष तक 'आचार्य देवो भव' आचार्य के प्रति अपना अर्पण करनेवाला हो। इसके बाद ५० व ५१ वर्ष तक 'अतिथि देवो भव' विद्वान् अतिथि ही हमारे देव हों, हम उनके प्रति अर्पण करें। इसके बाद त्यागपूर्वक प्रभु का उपासन करते हुए प्रभु को ही हम अपना आराध्य देव बनायें । ऐसा होने पर यह वेदवाणी हमें सब आवश्यक चीजों को प्राप्त करानेवाली होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- वेदवाणी हमारे मार्ग को परिष्कृत करती है, ज्ञानदुग्ध को देती है, हमारे जीवनों को सतत व्रतमय बनाती है। जीवन के लिये सब आवश्यक चीजों को प्राप्त कराती है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (या गौः) या वाक् “गौर्वाङ्नाम” [निघ० १।११] (वर्तनिं पर्येति) सत्यमार्गं पर्याप्नोति (अवारतः) विनाऽवरोधेन (व्रतनीः) कर्मनेत्री व्यवहारनायिका (निष्कृतं पयः-दुहाना) संस्कृतं ज्ञानं दुग्धं दोग्धी सती (सा) सा वाक् (दाशुषे वरुणाय विवस्वते) कर्मफलदात्रे, आनन्ददात्रे वरणीयाय स्वस्मिन्विशिष्टवासदत्तवते परमात्मने (देवेभ्यः) अग्न्यादिभ्यश्च (हविषा प्रब्रुवाणा) तेषाञ्ज्ञानाय प्रार्थनया प्रवचनं कुर्वाणा भवतु ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The earth which goes about in her well defined orbit, ceaselessly moving on over the orbital stages of the revolution and yielding milky nourishments for life on the way for living beings, expresses her thanks to generous Varuna and does homage to Vivasvan, the refulgent sun, Varuna dispelling it and the sun attracting it, both holding it in balance for the worshipful humanity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी वाणी सत्यतत्त्वाला प्राप्त करते. अडथळा न येता ज्ञानरूप दुधाचे दोहन करत व्यवहार करणारी असते. त्या वाणीने परमात्म्याची स्तुती केली जाते व अग्नी इत्यादी देवांचे गुण वर्णिले जातात. तिचा योग्य उपयोग केला पाहिजे. ॥६॥

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