ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 6
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
या गौर्व॑र्त॒निं प॒र्येति॑ निष्कृ॒तं पयो॒ दुहा॑ना व्रत॒नीर॑वा॒रत॑: । सा प्र॑ब्रुवा॒णा वरु॑णाय दा॒शुषे॑ दे॒वेभ्यो॑ दाशद्ध॒विषा॑ वि॒वस्व॑ते ॥
स्वर सहित पद पाठया । गौः । व॒र्त॒निम् । प॒रि॒ऽएति॑ । निः॒ऽकृ॒तम् । पयः॑ । दुहा॑ना । व्र॒त॒ऽनीः । अ॒वा॒रतः॑ । सा । प्र॒ऽब्रु॒वा॒णा । वरु॑णाय । दा॒शुषे॑ । दे॒वेभ्यः॑ । दा॒श॒त् । ह॒विषा॑ । वि॒वस्व॑ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
या गौर्वर्तनिं पर्येति निष्कृतं पयो दुहाना व्रतनीरवारत: । सा प्रब्रुवाणा वरुणाय दाशुषे देवेभ्यो दाशद्धविषा विवस्वते ॥
स्वर रहित पद पाठया । गौः । वर्तनिम् । परिऽएति । निःऽकृतम् । पयः । दुहाना । व्रतऽनीः । अवारतः । सा । प्रऽब्रुवाणा । वरुणाय । दाशुषे । देवेभ्यः । दाशत् । हविषा । विवस्वते ॥ १०.६५.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
विषय - पृथ्वी के परि भ्रमण से ऋतुओं की उत्पत्ति आदि का वर्णन।
भावार्थ -
(या) जो (गौः) भूमि, (निष्कृतम्) ठीक प्रकार से बने (वर्त्तनिम्) मार्ग को (परि एति) तय करती है, जो (पयः दुहाना) गौ के समान ही संसार के प्राणियों के लिये पुष्टिकारक जल प्रदान करती हुई (अवारतः) निरन्तर (व्रत-नीः) अन्न भी प्राप्त कराती है (सा) वह (वरुणाय) सर्वश्रेष्ठ, पतिवत् वरण करने योग्य (विवस्वते) विविध लोकों के स्वामी, (दाशुषे) प्रकाश, शक्ति आदि के देने वाले महान् सूर्य के सामर्थ्य को (प्रव्रुवाणा) बतलाती हुई (देवेभ्यः) जीवों के लिये (हविषा) नाना अन्न से (दाशत्) जीवन प्रदान करती है। अर्थात् पृथिवी स्वयं आकाश परिभ्रमण से ही सूर्य के महान् सामर्थ्य का पता देती है, उसी भ्रमण से ऋतुएं और अनेक धन-धान्य, वनस्पति आदि उत्पन्न होती हैं जिनसे प्राणी अन्न, जल पाते और जीते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
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