ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 65/ मन्त्र 5
मि॒त्राय॑ शिक्ष॒ वरु॑णाय दा॒शुषे॒ या स॒म्राजा॒ मन॑सा॒ न प्र॒युच्छ॑तः । ययो॒र्धाम॒ धर्म॑णा॒ रोच॑ते बृ॒हद्ययो॑रु॒भे रोद॑सी॒ नाध॑सी॒ वृतौ॑ ॥
स्वर सहित पद पाठमि॒त्राय॑ । शि॒क्ष॒ । वरु॑णाय । दा॒शुषे॑ । या । स॒म्ऽराजा॑ । मन॑सा । न । प्र॒ऽयुच्छ॑तः । ययोः॑ । धाम॑ । धर्म॑णा । रोच॑ते । बृ॒हत् । ययोः॑ । उ॒भे इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । नाध॑सी॒ इति॑ । वृतौ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
मित्राय शिक्ष वरुणाय दाशुषे या सम्राजा मनसा न प्रयुच्छतः । ययोर्धाम धर्मणा रोचते बृहद्ययोरुभे रोदसी नाधसी वृतौ ॥
स्वर रहित पद पाठमित्राय । शिक्ष । वरुणाय । दाशुषे । या । सम्ऽराजा । मनसा । न । प्रऽयुच्छतः । ययोः । धाम । धर्मणा । रोचते । बृहत् । ययोः । उभे इति । रोदसी इति । नाधसी इति । वृतौ ॥ १०.६५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 65; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 9; मन्त्र » 5
विषय - मित्र वरुण, वायु जलवत् दानी स्नेही, महापुरुषों का वर्णन।
भावार्थ -
(दाशुषे मित्राय दाशुषे वरुणाय शिक्ष) वायु और जल के तुल्य दान देने वाले स्नेही, और दान देने वाले श्रेष्ठ जन के लिये तू भी प्रदान कर। (या) जो वे दोनों (सम्राजा) गुणों से अच्छी प्रकार चमकने वाले सम्राट् के तुल्य होकर (मनसा) चित्त से कभी (न प्रयुच्छतः) प्रमाद नहीं करते, (ययोः धर्मणा) जिनके धारण सामर्थ्य से (बृहत् धाम) बड़ा भारी उनका तेजोमय शरीर या लोक, (रोचते) सूर्यवत् प्रकाशित होता और सबको प्रिय लगता है, और (ययोः) जिनके सामर्थ्य से (उभे रोदसी) दोनों ये लोक (नाघसी) नाना ऐश्वर्यों से युक्त (वृतौ) वर्तमान हैं। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:– १, ४, ६, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ३, ७, ९ विराड् जगती। ५, ८, ११ जगती। १४ त्रिष्टुप्। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥
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