ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 2
ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्र॑प्रसूता॒ वरु॑णप्रशिष्टा॒ ये सूर्य॑स्य॒ ज्योति॑षो भा॒गमा॑न॒शुः । म॒रुद्ग॑णे वृ॒जने॒ मन्म॑ धीमहि॒ माघो॑ने य॒ज्ञं ज॑नयन्त सू॒रय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ऽप्रसूताः । वरु॑णऽप्रशिष्टाः । ये । सूर्य॑स्य । ज्योति॑षः । भा॒गम् । आ॒न॒शुः । म॒रुत्ऽग॑णे । वृ॒जने॑ । मन्म॑ । धी॒म॒हि॒ । माघो॑ने । य॒ज्ञम् । ज॒न॒य॒न्त॒ । सू॒रयः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रप्रसूता वरुणप्रशिष्टा ये सूर्यस्य ज्योतिषो भागमानशुः । मरुद्गणे वृजने मन्म धीमहि माघोने यज्ञं जनयन्त सूरय: ॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रऽप्रसूताः । वरुणऽप्रशिष्टाः । ये । सूर्यस्य । ज्योतिषः । भागम् । आनशुः । मरुत्ऽगणे । वृजने । मन्म । धीमहि । माघोने । यज्ञम् । जनयन्त । सूरयः ॥ १०.६६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
विषय - विद्वानों से ज्ञान-प्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ -
(ये) जो (इन्द्र-प्रसूताः) ऐश्वर्यवान् एवं तत्वज्ञानी जनों से प्रेरित और अनुशासित (वरुण-प्रशिष्टाः) स्वयं वरण किये गुरु वा श्रेष्ठ पुरुष द्वारा उत्तम रीति से शिक्षित होकर (सूर्यस्य ज्योतिषः) सूर्य के तुल्य तेजस्वी पुरुष के ज्ञान प्रकाश के अंश को (आनशुः) प्राप्त होते हैं और जो (सूरयः) विद्वान् होकर (यज्ञं जनयन्त) यज्ञ करते व परस्पर संगत वा उपास्य प्रभु को प्रकट करते हैं उस (माघोने) ऐश्वर्यवान् प्रभु के उपासक (वृजने) बलवान् (मरुद्गणे) विद्वानों और वीर पुरुषों के समूह में विद्यमान (मन्म) मननीय ज्ञान को हम धारण करें। (२) इसी प्रकार जो वायुगण सूर्य से प्रेरित होते, मेघ या आकाश या रात्रि में उत्तम रीति से चलते, सूर्य के तेज को ग्रहण करते और जलदान को प्रकट करते, उन सूर्य सम्बन्धी वायुगण का हम ज्ञान सम्पादन करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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