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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मां धियं॑ स॒प्तशी॑र्ष्णीं पि॒ता न॑ ऋ॒तप्र॑जातां बृह॒तीम॑विन्दत् । तु॒रीयं॑ स्विज्जनयद्वि॒श्वज॑न्यो॒ऽयास्य॑ उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शंस॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माम् । धिय॑म् । स॒प्तऽशी॑र्ष्णीम् । पि॒ता । नः॒ । ऋ॒तऽप्रजाताम् । बृ॒ह॒तीम् । अ॒वि॒न्द॒त् । तु॒रीय॑म् । स्वि॒त् । ज॒न॒य॒त् । वि॒श्वऽज॑न्यः । अ॒यास्यः॑ । उ॒क्थम् । इन्द्रा॑य । शंस॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमां धियं सप्तशीर्ष्णीं पिता न ऋतप्रजातां बृहतीमविन्दत् । तुरीयं स्विज्जनयद्विश्वजन्योऽयास्य उक्थमिन्द्राय शंसन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाम् । धियम् । सप्तऽशीर्ष्णीम् । पिता । नः । ऋतऽप्रजाताम् । बृहतीम् । अविन्दत् । तुरीयम् । स्वित् । जनयत् । विश्वऽजन्यः । अयास्यः । उक्थम् । इन्द्राय । शंसन् ॥ १०.६७.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 15; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (नः) हमारा पालक (ऋत-प्रजाताम्) सत्, परमकारण, सत्यभक्त ज्ञानमय तत्व से उत्पन्न (सप्त-शीर्ष्णीम्) सात शिरोंवाली (इमां) इस (धियं) बुद्धि वा वाणी, धारणवती (बृहतीम्) बड़ी भारी शक्ति को (अविन्दत्) प्राप्त करता है, और वह (विश्व-जन्यः) समस्त जनों या उत्पन्न प्राणियों और लोकों का हितकारी, (अयास्यः) देह में मुख्य प्राणवत् प्रमुख होकर ही (इन्द्राय) इस तत्वदर्शी आत्मा को (उक्थम्) वचनोपदेश (शंसन्) करता हुआ (तुरीयं स्वित् जनयत्) तुरीय परमपद को भी प्रकट करता हुआ मुक्ति प्राप्त कराता है। (२) अध्यात्म में—पिता आत्मा वा प्रभु है। ऋतप्रजाता सात शिरोंवाली देहधारिणी शक्ति चेतना है वह उसको प्राप्त करता है, मुख्य प्राण रूप आत्मा ‘अयास्य’ है वही इन्द्र प्रभु से स्तुति वचन कहता, प्रभु की स्तुति करता, मोक्ष का लाभ करता है। (३) यदि पिता परमेश्वर है तो इन्द्र जीव है तब वह जीव को गुरुवत् उपदेश कर मोक्षोपदेश करता है। राष्ट्र में विश्वजन्य अयास्य मुख्य पुरोहित है। इन्द्र राजा है सप्तशीर्णी बृहती सभा है उसका पति सभापति है। वही पिता है। ऐसी ही आगे भी योजना करना।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य आंगिरस ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता॥ छन्दः– १ विराट् त्रिष्टुप्। २–७, ११ निचृत् त्रिष्टुप्। ८–१०,१२ त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्।

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