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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 11
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒भि श्या॒वं न कृश॑नेभि॒रश्वं॒ नक्ष॑त्रेभिः पि॒तरो॒ द्याम॑पिंशन् । रात्र्यां॒ तमो॒ अद॑धु॒र्ज्योति॒रह॒न्बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ वि॒दद्गाः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि । श्या॒वम् । न । कृश॑नेभिः । अश्व॑म् । नक्ष॑त्रेभिः । पि॒तरः॑ । द्याम् । अ॒पिं॒श॒न् । रात्र्या॑म् । तमः॑ । अद॑धुः । ज्योतिः॑ । अह॑न् । बृह॒स्पतिः॑ । भि॒नत् । अद्रि॑म् । वि॒दत् । गाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभि श्यावं न कृशनेभिरश्वं नक्षत्रेभिः पितरो द्यामपिंशन् । रात्र्यां तमो अदधुर्ज्योतिरहन्बृहस्पतिर्भिनदद्रिं विदद्गाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभि । श्यावम् । न । कृशनेभिः । अश्वम् । नक्षत्रेभिः । पितरः । द्याम् । अपिंशन् । रात्र्याम् । तमः । अदधुः । ज्योतिः । अहन् । बृहस्पतिः । भिनत् । अद्रिम् । विदत् । गाः ॥ १०.६८.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    जिस प्रकार लोग (श्यावं अश्वम्) लाल-काले रंग के, तेलिया कमैत या काले रंग के घोड़े को (कुशनेभिः अपिंशन्) नाना सुवर्णमय आभूषणों से सुशोभित करते हैं और (पितरः) विद्वान् लोग (नक्षत्रेभिः) नक्षत्रों से (द्याम् अपिंशन्) आकाश चक्र को विभक्त करते हैं, (रात्र्याम् अदधुः) रात्रिकाल में अन्धकार को विशेष लक्षण से स्थिर करते और (अहन् ज्योतिः अदधुः) दिन के समय में प्रकाश को विशेष लक्षण से स्थिर करते और (बृहस्पतिः) जिस प्रकार महान् आकाश का सूर्य वा भारी बलशाली विद्युत् वा वायु (अद्रिम् भिनत्) मेघ को छिन्न भिन्न करता है, और (गाः विदत्) सूर्य की किरणों और जलधाराओं को प्राप्त कराता है, उसी प्रकार (बृहस्पतिः) वेदवाणी का विद्वान् पुरुष (अद्रिम् भिनत्) विदीर्ण न होने वाले दृढ़ अज्ञानावरण को दूर करे और (गाः विदद्) वेदवाणियों को प्राप्त करे और अन्यों को भी बतलावे। (२) अध्यात्म में—विद्वान् जन (कृशनेभिः) नाना साधनों से, अश्ववत् भोक्ता और यावत् ज्ञानवान् आत्मा को भूषित करते हैं वे ही (पितरः) नाना यम-नियमों के पालक होकर (द्याम्) स्वप्रकाश रूप, इच्छावान् आत्मा को (नक्षत्रेभिः) दूर तक जाने वा व्यापने वाले अनेक इन्द्रियगतप्राणों से (अपिंशन्) भूषित करते, चमकाते और निरूपण करते हैं। उसकी रात्रि के समान निद्रावृत्ति में तमोगुण का और अहनि = दिन की प्रकाश दशा में ज्योतिर्मय सत्व का ही स्थिर निश्चय करते हैं, तब बृहती वाणी का पालक, मुनिवत् साधक अज्ञान-आवरण को नाश करके ज्ञानमय रश्मियों वा सत्य वाणियों को प्राप्त करता है। वह वाक् सिद्ध हो जाता है। (३) राष्ट्र पक्ष में—राष्ट्र के पालक, (अश्वं) राष्ट्र को बाना उद्योगों से, सुवर्णादि धन-सम्पदों से अश्व को आभूषणों से जैसे सुशोभित करें (द्याम्) वे नक्षत्रों से आकाशवत् भूमि को भी (नक्षत्रैः) स्थिर स्थायी दुर्गों, अविचल शासकों और अहिंसक रक्षकों को नदी, पर्वत आदि स्थिर चिन्हों से नाना विभागों में बांटे, विद्वान् लोग दिन रात का विभाग प्रकाश और अन्धकार से निर्णय करें और मुख्य नायक पर्वत वा जलमय मेघ के समान (अद्रिम् भिनत्) शत्रु के दृढ़ सैन्य को भेदें और (गाः विदत्) नाना पशु और भूमियां हस्तगत करें।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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