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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सा॒ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः । बृह॒स्पति॒: पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा॒धु॒ऽअ॒र्याः । अ॒ति॒थिनीः॑ । इ॒षि॒राः । स्पा॒र्हाः । सु॒ऽवर्णाः॑ । अ॒न॒व॒द्यऽरू॑पाः । बृह॒स्पतिः॑ । पर्व॑तेभ्यः । वि॒ऽतूर्य॑ । निः । गाः । ऊ॒पे॒ । यव॑म्ऽइव । स्थि॒विऽभ्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    साध्वर्या अतिथिनीरिषिरा स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः । बृहस्पति: पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    साधुऽअर्याः । अतिथिनीः । इषिराः । स्पार्हाः । सुऽवर्णाः । अनवद्यऽरूपाः । बृहस्पतिः । पर्वतेभ्यः । विऽतूर्य । निः । गाः । ऊपे । यवम्ऽइव । स्थिविऽभ्यः ॥ १०.६८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    जिस प्रकार कृषक, परिश्रमी जन (पर्वतेभ्यः) पर्वतों से (गाः) गतिशील जलधाराओं को (वि-तूर्य) विशेष रूप से या विविध प्रकार से काटता है और (यवम् निः ऊपे) जौ आदि धान्य बोता है और जिस प्रकार सूर्य वा विद्युत् (पर्वतेभ्यः) मेघों से (गाः) जल-धाराओं को (वि-तूर्य) विशेष रूप से निकाल कर बिन्दु रूप से भूमियों पर डालता है, मानो भूमियों पर जौ छिटकाता है, उसी प्रकार (बृहस्पतिः) वह महान् ब्रह्माण्ड की बड़ी २ शक्तियों का स्वामी (स्थिविभ्यः) स्थिर, (पर्वतेभ्यः) पूर्ण और पालन शक्तियों से सम्पन्न सूर्यादि पदार्थों से जीवनशक्ति के तत्वों को (गाः निरूपे) अनेक भूमियों के प्रति ऐसे फेंकाता है जैसे भूमियों पर जौ छिटकाता हो। ये भूमियां कैसी हैं ? जैसे ये भूमियां (साधु-अर्याः) उत्तम स्वामियों और वैश्य जनों से युक्त हैं उसी प्रकार वे अनेक पृथिवियां भी (साधु-अर्याः) सूर्य सदृश उत्तम पालकों से युक्त हैं, (अतिथि- नीः) अपने ऊपर के अध्यक्ष कृषक को अन्न देती हैं, इसी प्रकार वे पृथिवियें भी (अतिथि-नीः) निरन्तर गति करने वाली (इषिराः) ये भूमियां अन्न आदि देने वाली, इसी प्रकार अनेक पृथिविएं (इषिराः) अन्य सूर्यादि प्रेरकों से प्रेरित होकर चलने वाली हैं। ये (स्पार्हाः) चाहने योग्य, (सु-वर्णाः) उत्तम वर्ण वाली, (अनवद्य-रूपाः) अनिन्दनीय रूप वाली हैं। (२) इसी प्रकार वह बृहस्पति परमेश्वर (पर्वतेभ्यः स्थिविम्यः) स्थिर पालकों के हाथ (गाः वितूर्य) अभिगमनीय वधुओं को प्रदान करके (यवम् इव) भूमियों में जौ के तुल्य ही सन्तानोत्पादक बीजों के निर्वाप करता है, और जीव सृष्टि को उत्पन्न करता है। वे स्त्रियां कैसी हों (साधु-अर्याः) उत्तम स्वामी वाली, (अतिथिनीः) अतिथियों को अन्न जल से सत्कार करने वाली वा अतिथि के तुल्य वर के प्रति ले जाये जाने योग्य, (इषिराः) इच्छा करनेहारी, (स्पार्हा) प्रेम करने योग्य, (सु-वर्णाः) उत्तम वर्ण वाली, (अनवद्य-रूपाः) अनिन्दित रूप, वर्ण,अंगों वाली हों।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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