ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 3
सा॒ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः । बृह॒स्पति॒: पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्य॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसा॒धु॒ऽअ॒र्याः । अ॒ति॒थिनीः॑ । इ॒षि॒राः । स्पा॒र्हाः । सु॒ऽवर्णाः॑ । अ॒न॒व॒द्यऽरू॑पाः । बृह॒स्पतिः॑ । पर्व॑तेभ्यः । वि॒ऽतूर्य॑ । निः । गाः । ऊ॒पे॒ । यव॑म्ऽइव । स्थि॒विऽभ्यः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
साध्वर्या अतिथिनीरिषिरा स्पार्हाः सुवर्णा अनवद्यरूपाः । बृहस्पति: पर्वतेभ्यो वितूर्या निर्गा ऊपे यवमिव स्थिविभ्य: ॥
स्वर रहित पद पाठसाधुऽअर्याः । अतिथिनीः । इषिराः । स्पार्हाः । सुऽवर्णाः । अनवद्यऽरूपाः । बृहस्पतिः । पर्वतेभ्यः । विऽतूर्य । निः । गाः । ऊपे । यवम्ऽइव । स्थिविऽभ्यः ॥ १०.६८.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(साध्वर्याः) साधु अर्थात् कुशल या उदार स्वामी जिनका है, ऐसी वे (अतिथिनीः) अतिथियों को ले जातीं या प्राप्त होती हैं, वे (इषिराः) चाहने योग्य (स्पार्हाः) स्पृहणीय (अनवद्यरूपाः) अनिन्दनीय-प्रशंसनीय वेदवाणियाँ या जलधाराएँ (बृहस्पतिः) महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी परमात्मा या महान् राष्ट्र का स्वामी राजा (स्थिविभ्यः पर्वतेभ्यः) स्थिर बहुत विद्यावाले ऋषियों से या पर्वतों से (गाः-वितूर्य) वेदवाणियों को या गतिशील जलधाराओं को उनके हृदयकपाट को खोलकर या पर्वतगह्वर को विदीर्ण करके (निर्-ऊपे) निकालता है या नीचे फेंकता है (यवम्-इव) अन्न की भाँति, जैसे किसान खेत से अन्न को प्रकट करता है ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में आदि ऋषियों के हृदय-अन्तःकरण से संसार का कल्याण साधनेवाली वेदवाणियों का प्रकाश करता है, जो वेदवाणियाँ दोषों को दूर करनेवाली और प्रशंसनीय हैं। एवं राजा प्रजा का हित चाहता हुआ पर्वतों से नदियों के मार्ग को विकसित करता हुआ, उन्हें कुल्याओं के रूप में नीचे लाता है। प्रजा के लिए राज का यह कर्तव्य है कि वह उनकी इस प्रकार की सुविधाओं का सम्पादन करे ॥३॥
विषय
किसान के समान प्रभु का सृष्टि-वपन का कार्य। और खेतियों के समान पृथिवियों का वर्णन। पक्षान्तर में प्रभु का जंगम सृष्टि रचने का वर्णन। और जंगम-सर्गोत्पादक जंगम भूमियों का वर्णन।
भावार्थ
जिस प्रकार कृषक, परिश्रमी जन (पर्वतेभ्यः) पर्वतों से (गाः) गतिशील जलधाराओं को (वि-तूर्य) विशेष रूप से या विविध प्रकार से काटता है और (यवम् निः ऊपे) जौ आदि धान्य बोता है और जिस प्रकार सूर्य वा विद्युत् (पर्वतेभ्यः) मेघों से (गाः) जल-धाराओं को (वि-तूर्य) विशेष रूप से निकाल कर बिन्दु रूप से भूमियों पर डालता है, मानो भूमियों पर जौ छिटकाता है, उसी प्रकार (बृहस्पतिः) वह महान् ब्रह्माण्ड की बड़ी २ शक्तियों का स्वामी (स्थिविभ्यः) स्थिर, (पर्वतेभ्यः) पूर्ण और पालन शक्तियों से सम्पन्न सूर्यादि पदार्थों से जीवनशक्ति के तत्वों को (गाः निरूपे) अनेक भूमियों के प्रति ऐसे फेंकाता है जैसे भूमियों पर जौ छिटकाता हो। ये भूमियां कैसी हैं ? जैसे ये भूमियां (साधु-अर्याः) उत्तम स्वामियों और वैश्य जनों से युक्त हैं उसी प्रकार वे अनेक पृथिवियां भी (साधु-अर्याः) सूर्य सदृश उत्तम पालकों से युक्त हैं, (अतिथि- नीः) अपने ऊपर के अध्यक्ष कृषक को अन्न देती हैं, इसी प्रकार वे पृथिवियें भी (अतिथि-नीः) निरन्तर गति करने वाली (इषिराः) ये भूमियां अन्न आदि देने वाली, इसी प्रकार अनेक पृथिविएं (इषिराः) अन्य सूर्यादि प्रेरकों से प्रेरित होकर चलने वाली हैं। ये (स्पार्हाः) चाहने योग्य, (सु-वर्णाः) उत्तम वर्ण वाली, (अनवद्य-रूपाः) अनिन्दनीय रूप वाली हैं। (२) इसी प्रकार वह बृहस्पति परमेश्वर (पर्वतेभ्यः स्थिविम्यः) स्थिर पालकों के हाथ (गाः वितूर्य) अभिगमनीय वधुओं को प्रदान करके (यवम् इव) भूमियों में जौ के तुल्य ही सन्तानोत्पादक बीजों के निर्वाप करता है, और जीव सृष्टि को उत्पन्न करता है। वे स्त्रियां कैसी हों (साधु-अर्याः) उत्तम स्वामी वाली, (अतिथिनीः) अतिथियों को अन्न जल से सत्कार करने वाली वा अतिथि के तुल्य वर के प्रति ले जाये जाने योग्य, (इषिराः) इच्छा करनेहारी, (स्पार्हा) प्रेम करने योग्य, (सु-वर्णाः) उत्तम वर्ण वाली, (अनवद्य-रूपाः) अनिन्दित रूप, वर्ण,अंगों वाली हों।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु का सृष्टिवपन
पदार्थ
जिस प्रकार कृषक (पर्वतेभ्यः) = पर्वतों से (गाः) = जलधाराओं को (वि-तूर्य) = विविध प्रकार से काटता है और (यवम् निः ऊपे) = जौ आदि धान्य बोता है, और जिस प्रकार सूर्य वा विद्युत् (पर्वतेभ्यः) = मेघों से (गाः) = जलधाराओं को (वि-तूर्य) = विशेष रूप से निकाल कर भूमियों पर डालता है, मानो भूमियों पर जौ छिटकाता है, उसी प्रकार (बृहस्पतिः) = वह बड़ी-बड़ी शक्तियों का स्वामी परमेश्वर (स्थिविभ्यः) = स्थिर, (पर्वतेभ्यः) = और पालक शक्तियोंवाले सूर्यादि पदार्थों से जीवनशक्ति के तत्त्वों को (गाः निरूपे) = अनेक भूमियों के प्रति ऐसे फेंकाता है जैसे भूमियों पर जौ छिटकाता हो। ये भूमियाँ (साधु-अर्याः) = जो कि उत्तम स्वामियों और वैश्यजनों से युक्त हैं, विद्वान् अतिथि जिनमें नेता का कार्य हैं, जो कि अन्न से भरपूर हैं (स्पर्शाः) = चाहने योग्य, (सु-वर्णाः) = उत्तम वर्णवाली, (अनवद्य रूपा:) = तथा अनिन्दनीय रूपवाली हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - कृषक परिश्रम पूर्वक अन्नोत्पादन करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(साध्वर्याः) साधुः कुशल उदारो वा अर्यः स्वामी यासां ताः (अतिथिनीः) अतिथीन् न यन्ति यास्ताः (इषिराः) एषणीयाः (स्पार्हाः) स्पृहणीयाः (अनवद्यरूपाः) अनिन्दनीया अपि प्रशंसनीयाः वेदवाचः जलधारा वा (बृहस्पतिः) बृहतो ब्रह्माण्डस्य पतिः परमात्मा महतो राष्ट्रस्य पालको राजा वा (स्थिविभ्यः पर्वतेभ्यः-गाः-वितूर्य) स्थिरेभ्यो विद्यापर्वद्भ्यः-बहुविद्यासंश्लेषवद्भ्यः-ऋषिभ्यो गिरिभ्यो वा वेदवाचः गतिशीला जलधारा वा तेषां हृदयकपाटमुदीर्य-उद्घाट्य विदार्य वा (निर् ऊपे) निर्वपति निःक्षिपति (यवम्-इव) अन्नमिव यथान्नं कृषिवलो निर्वपति ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Replete with pure, living energy, ever on the move, loved, coveted, brilliant golden, beautiful in form, such are the rays of light and vitality which Brhaspati, the sun, recovers from the deep caverns of darkness and sends them down to clouds and earth as a farmer sows the seeds of barley in the field.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा सृष्टीच्या आरंभी ऋषींच्या अंत:करणाद्वारे जगाचे कल्याण साधणाऱ्या वेदवाणीचा प्रकाश करतो. ती वेदवाणी दोषांना दूर करणारी व प्रशंसनीय आहे. राजा प्रजेचे हित साधण्यासाठी पर्वतातून नद्यांचा मार्ग विकसित करत त्यांना धबधब्याच्या रूपात खाली आणतो. राजाचे हे कर्तव्य आहे, की त्याने प्रजेला या प्रकारच्या सुविधा द्याव्यात. ॥३॥
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