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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 68 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 4
    ऋषिः - अयास्यः देवता - बृहस्पतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ॒प्रु॒षा॒यन्मधु॑न ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः । बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ॒ऽप्रु॒षा॒यन् । मधु॑ना । ऋ॒तस्य॑ । योनि॑म् । अ॒व॒ऽक्षि॒पन् । अ॒र्कः । उ॒ल्काम्ऽइ॑व । द्योः । बृह॒स्पतिः॑ । उ॒द्धर॑न् । अश्म॑नः । गाः । भूम्याः॑ । उ॒द्नाऽइ॑व । वि । त्वच॑म् । बि॒भे॒द॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आप्रुषायन्मधुन ऋतस्य योनिमवक्षिपन्नर्क उल्कामिव द्योः । बृहस्पतिरुद्धरन्नश्मनो गा भूम्या उद्नेव वि त्वचं बिभेद ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आऽप्रुषायन् । मधुना । ऋतस्य । योनिम् । अवऽक्षिपन् । अर्कः । उल्काम्ऽइव । द्योः । बृहस्पतिः । उद्धरन् । अश्मनः । गाः । भूम्याः । उद्नाऽइव । वि । त्वचम् । बिभेद ॥ १०.६८.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) महान् ब्रह्माण्ड का स्वामी तथा वेद का स्वामी या महान् राष्ट्र का पालक (ऋतस्य योनिम्) ज्ञान के पात्रभूत मनुष्य को (मधुना) मधुर ज्ञान से (आप्रुषायन्) समन्तरूप से पूर्ण करता है (अर्कः) अर्चनीय परमात्मा (द्योः-उल्काम्-अवक्षिपन्) जैसे विद्युत् विद्युद्धारा को नीचे फेंकती है, ऐसे (अश्मन्-गा उद्धरन्) ज्ञान से व्याप्त वेद की वाणियों को उद्घाटित करता है (भूम्याः-उद्गा-इव त्वचं बिभेद) जैसे जलधारा जलप्रपात से भूमि की त्वचा को-आवरण को कोई कृषक छिन्न-भिन्न करता है-तोड़ता है, अथवा जल के लिए भूमि की त्वचा-उपरिस्तर को कोई महान् शिल्पी उत्पाटित करता है-तोड़ता है ॥४॥

    भावार्थ

    वेदज्ञान का स्वामी तथा राष्ट्र का स्वामी ज्ञान के पात्र जन को वेदज्ञान देकर उसके अन्तःकरण को विकसित करता है, जैसे विद्युत् अपनी विद्युत् धारा से मेघजल को बरसाकर भूमि को विकसित करती है, जैसे कृषक भूमि पर खेती में जल बहाकर विकसित करता है, शिल्पी जैसे कुआँ खोदकर जल निकालकर भूमि को विकसित करता है ॥४॥

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    विषय

    परमेश्वर ज्ञान किस प्रकार देता है इस का वर्णन। मेघ से, वा पर्वत से जलधाराओंवत् ज्ञान धाराओं की प्राप्ति का वर्णन। शिल्पी द्वारा बनी नहर के समान शिष्यों में ज्ञान-धारा का प्रवर्त्तन।

    भावार्थ

    (बृहस्पतिः) बृहती वेदवाणी का स्वामी, विद्वान् (ऋतस्य योनिम्) सत्य ज्ञान के प्रदान करने के योग्य पात्र के (मधुना) ज्ञानमय मधु से (आ-प्रुषायन्) सब प्रकार से इसी प्रकार पूर्ण करता है जैसे मेघ (ऋतस्य योनिम्) जलाशय को (मधुना) जल से पूर्ण करता है। वह (अर्कः) स्वयं पूजनीय, स्तुतियोग्य वा सत्य ज्ञान का उपदेष्टा ज्ञान का प्रकाश सत्पात्र को इस प्रकार देता है जैसे (अर्कः द्यौः उल्काम् अवक्षिपन् इव) विद्युत् आकाश से चमकती धाराओं को नीचे डालती हैं। वह विद्वान् (अश्मनः) सर्वव्याक प्रभु से वा उसकी (गाः) वेद-वाणियों को इस प्रकार (उत् हरन्) उत्तम रीति से ग्रहण करता है वा ऊपर से उदारता से प्रदान करता है जैसे (अश्मनः गाः) विशाल पर्वत से जल की धाराओं को वा जैसे मेघ से आती जलधाराओं को बड़ी उदारता से प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार (उद्ना) जलधारा वा उसके निमित्त से (भूम्याः) भूमि की (त्वचम्) ऊपर के आवरण-पृष्ठ को कोई इनजिनियर पाटता है और नहर बना लेता है उसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी (भूम्याः) ज्ञान धारण के योग्य उत्तम भूमि रूप शिष्य बुद्धि के (त्वचम्) अज्ञान के आवरण को (मधुना) ज्ञान से (वि बिभेद) विविध प्रकारों से दूर करे। (२) इसी प्रकार गुरु के समान प्रभु भी साधक को ऐश्वर्यादि प्रदान करता है और राजा प्रजा के प्रति ऐसा व्यवहार करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    परमेश्वर ज्ञानदाता

    पदार्थ

    (बृहस्पतिः) = वेदवाणी का विद्वान् सत्पात्र को (मधुना) = ज्ञानमय मधु से (आ प्रुषायन्) = इस प्रकार पूर्ण करता है जैसे मेघ (ऋतस्य योनिम्) = जलाशय को मधुना जल से पूर्ण करता है । वह (अर्क:) = स्तुतियोग्य उपदेष्टा सत्पात्र को ज्ञान का प्रकाश इस प्रकार देता है जैसे (अर्कः द्यौः उल्काम् अवक्षिपन् इव) = विद्युत् आकाश से चमकती धाराओं को नीचे डालती हैं। वह विद्वान् (अश्मनः) = सर्वव्यापक प्रभु की (गाः) = वेदवाणियों को इस प्रकार (उत् हरन्) = उदारता से प्रदान करता है जैसे (अश्मनः गाः) = विशाल पर्वत से जल की धाराओं को वा मेघ से आती जलधाराओं को बड़ी उदारता से प्राप्त किया जाता है। जिस प्रकार (उद्ना) = जलधारा के निमित्त (भूम्याः) = भूमि के (त्वचम्) = ऊपर के आवरण पृष्ठ को कोई इंजिनियर पाटता है और नहर बना लेता है उसी प्रकार विद्वान् पुरुष भी (भूम्याः) = ज्ञानधारण के योग्य उत्तम भूमिरूप शिष्य के (त्वचम्) = अज्ञानावरण को (मधुना) = ज्ञान से (वि बिभेद) = विविध प्रकारों से दूर करे।

    भावार्थ

    भावार्थ - विज्ञजन विद्यार्थियों को प्रेम से विद्यादान करें ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (बृहस्पतिः) महतो ब्रह्माण्डस्य स्वामी तथा वेदस्वामी “प्र नूनं ब्रह्मणस्पतिर्मन्त्रं वदत्युक्थ्यम्” [यजु० ३४।५७] महतो राष्ट्रस्य पालकः (ऋतस्य योनिम्) ज्ञानस्य गृहं ग्राहकं पात्रभूतं जनं (मधुना) मधुरेण ज्ञानेन “मधु विज्ञानम्” [यजु० १९।९ दयानन्दः] (आप्रुषायन्) पूरयति “प्रुष स्नेहसेवनपूरणेषु” [क्र्यादिः], ‘व्यत्ययेन शायच् प्रत्ययश्छान्दसः’ (अर्कः) अर्चनीयः परमात्मा (द्योः-उल्काम्-अवक्षिपन्) यथा विद्युत्-विद्युद्धाराः-अवक्षिपन्-क्षिपति ‘व्यत्ययेन प्रथमास्थाने पञ्चमी’ ऋ० १।१५०।१८ दयानन्दः] “उल्काः-विद्युत्पाताः” [यजु० १३।१० दयानन्दः] (अश्मन्-गाः-उद्धरन्) ज्ञानव्याप्तस्य वेदस्य वाचो मन्त्रवाचः-उद्घाटयति (भूम्याः-उद्गा-इव त्वचं बिभेद) यथा जलधारया जलप्रतापेन भूमेस्त्वचमावरणं भिनत्ति कश्चित् कृषकः, यद्वा खलूदकार्थं भूमेस्त्वचमुपरितलं महान् शिल्पी-उत्पाटयति-भिनत्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Sprinkling the womb of life with the honey sweets of vitality like the sun radiating the rays of light from the regions of heaven, Brhaspati recovers the showers of life from the clouds and, as showers of water seep into the crust of earth, so the seeds of life are vested and borne in the earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी विद्युत आपल्या विद्युत धारेने मेघजलांचा वर्षाव करून भूमी विकसित करते, जसा शेतकरी भूमीवर शेतात जलाचा प्रवाह विकसित करतो, कारागीर विहीर खोदून पाणी काढतो व भूमी विकसित करतो, तसा वेदज्ञानाचा स्वामी व राष्ट्राचा स्वामी ज्ञानास पात्र असलेल्या लोकांना वेदज्ञान देऊन त्याचे अंत:करण विकसित करतो. ॥४॥

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