ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 8
अश्नापि॑नद्धं॒ मधु॒ पर्य॑पश्य॒न्मत्स्यं॒ न दी॒न उ॒दनि॑ क्षि॒यन्त॑म् । निष्टज्ज॑भार चम॒सं न वृ॒क्षाद्बृह॒स्पति॑र्विर॒वेणा॑ वि॒कृत्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअश्ना॑ । अपि॑ऽनद्धम् । मधु॑ । परि॑ । अ॒प॒श्य॒त् । मत्स्य॑म् । न । दी॒ने । उ॒दनि॑ । क्षि॒यन्त॑म् । निः । तत् । ज॒भा॒र॒ । च॒म॒सम् । न । वृ॒क्षात् । बृह॒स्पतिः॑ । वि॒ऽर॒वेण॑ । वि॒ऽकृत्य॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्नापिनद्धं मधु पर्यपश्यन्मत्स्यं न दीन उदनि क्षियन्तम् । निष्टज्जभार चमसं न वृक्षाद्बृहस्पतिर्विरवेणा विकृत्य ॥
स्वर रहित पद पाठअश्ना । अपिऽनद्धम् । मधु । परि । अपश्यत् । मत्स्यम् । न । दीने । उदनि । क्षियन्तम् । निः । तत् । जभार । चमसम् । न । वृक्षात् । बृहस्पतिः । विऽरवेण । विऽकृत्य ॥ १०.६८.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 18; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बृहस्पतिः) ब्रह्माण्ड का वेदज्ञान का स्वामी परमात्मा (अश्ना-अपिनद्धं मधु) भोगवाले भोगायतन-शरीर के द्वारा दृढबद्ध आत्मा को (परि-अपश्यत्) सम्यक् देखता है (मत्स्यं न दीने-उदनि क्षियन्तम् ) क्षीण जलाशय में-जल में रहते हुए मत्स्य की भाँति (तत्-निर्जभार) उस जीवात्मा को निकालता है (वृक्षात्-चमसं न) जैसे रसमय वृक्ष से चमनीय रस को (विकृत्य रवेण) काटकर निकालते हैं, ऐसे प्रवचन द्वारा निकालता है ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा शरीर में बँधे आत्मा का उद्धार करता है, जैसे थोड़े पानी में तड़पती मछली को बाहर किया जाता है। उसके लिए वेद में से उस ज्ञान को प्रकट करता है, जैसे रसीले फलवाले वृक्ष से उसके पान करने योग्य रस को निकाला जाता है ॥८॥
विषय
छोटे तालाब में तड़पते हुए मत्स्य के समान बद्ध आत्मा की स्थिति। उसको ज्ञान द्वारा मुक्त होने का उपदेश। उसके लिये वह ओंकार का ध्यान करे। मुक्ति में डण्डी से फल टूटने के समान बन्धन-छेद।
भावार्थ
(दीने उदनि) अल्प, हीन, क्षीण वा बंधे जल में (क्षियन्तं मत्स्यं न) रहते हुए मत्स्य के समान व्याकुल (मधु) उस मधुर रसवान् आत्मा को विद्वान् ज्ञानी पुरुष (अश्ना अपिनद्धम्) सुख दुःखों के भोगप्रद देह के साथ बंधा हुआ (परि अपश्यत्) देखता है। (वृक्षात् चमसं न) वृक्ष से खाने योग्य फल के समान (तत्) उसको वह (विरवेण) विशेष शब्दमय ज्ञानभण्डार वा ओंकार नाद से (वि-कृत्य) विशेष साधना करके उसके बंधे बन्धन को काट कर अपने को (निर्जभार) मुक्त कर ले। अर्थात् जिस प्रकार (विरवेण = विलवेन) विशेष काटने या छेदने योग्य शस्त्र से वृक्ष पर लगे फल को काटकर पृथक् कर लिया जाता है उसी प्रकार वह भी बंधे आत्मा के बन्धन को (विरवेण विकृत्य) विशेष ओंकार या वेदमय शब्द द्वारा विशेष परिष्कृत करके बन्धन से मुक्त करे। फल के मूल वृक्ष से अलग होने के दृष्टान्त मुक्त होने में अन्य भी हैं जैसे ‘उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्।’ वह आत्मा मधु अशना-पिपासा से बंध कर इस देहरूप वृक्ष में बंधा रहता है। यहां वह छोटे से छप्पड़ में मच्छी के सदृश बड़ा व्याकुल होता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान द्वारा मुक्त होने का उपदेश
पदार्थ
(दीने उदनि) = अल्प जल में (क्षियन्तं मत्स्यं न) = रहते हुए मत्स्य के समान व्याकुल (मधु) = उस मधुर रसवान् आत्मा को, ज्ञानी पुरुष (अश्ना अपिनाद्वम्) = सुख दुःखों के भोगप्रद देह के साथ बंधा हुआ (परि अपश्यत्) = देखता है। (वृक्षात् चमसं न) = वृक्ष से खाने योग्य फल के समान (तत्) = उसको वह (विरवेण) = विशेष शब्दमय ज्ञानभण्डार वेद वा ओंकार - नाद से (वि-कृत्य) = विशेष साधना करके बंधे बन्धन को काट कर अपने को (निर्जभार) = मुक्त कर ले।
भावार्थ
भावार्थ- ज्ञानी पुरुष वेद से योग से संसार बन्ध से मुक्त हों ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बृहस्पतिः) ब्रह्माण्डस्य वेदज्ञानस्य स्वामी (अश्ना-अपिनद्धं मधु परि-अपश्यत्) अशनवता “अश्ना-अशनवता” [निरु० १०।११] भोगवता भोगायतनेन शरीरेण दृढं बद्धमात्मानं परिपश्यति “आत्मा वै पुरुषस्य मधु” (तै० सं० २।३।२।९) (मत्स्यं न दीने-उदनि क्षियन्तम्) क्षीणे जलाशये-जले “दीङ् क्षये” [दिवादिः] ‘ततो नक्’ [उणा० ३।२] निवसन्तं मत्स्यमिव (तत्-निर्जभार) तं जीवात्मानं निर्हरति निस्सारयति (वृक्षात्-चमसं न रवेण विकृत्य) यथा वा वृक्षात्-रसमयात् चमनीयं रसं कर्तित्वा प्रयच्छति तद्वत् प्रवचनेन प्रयच्छति ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Brhaspati sees the sweetness and beauty of human life caught up in the bonds of pleasure and sufferance in the body like a fish caught up in shallow waters, and he raises and refines it like a cup of soma for the divinities, crafted from rough wood, having refined and blest it by the resounding voice of revelation.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा शरीरात बंधित असलेल्या आत्म्याचा उद्धार करतो. जसा थोड्या पाण्यात तडफडणारा मासा बाहेर काढला जातो. तसे परमात्मा (अल्पज्ञ) आत्म्यासाठी वेदातून ज्ञान प्रकट करतो. जसे रसदार फळाच्या वृक्षापासून रस काढला जातो. ॥८॥
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