ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 68/ मन्त्र 6
य॒दा व॒लस्य॒ पीय॑तो॒ जसुं॒ भेद्बृह॒स्पति॑रग्नि॒तपो॑भिर॒र्कैः । द॒द्भिर्न जि॒ह्वा परि॑विष्ट॒माद॑दा॒विर्नि॒धीँर॑कृणोदु॒स्रिया॑णाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय॒दा । व॒लस्य॑ । पीय॑तः । जसु॑म् । भेत् । बृह॒स्पतिः॑ । अ॒ग्नि॒तपः॑ऽभिः । अ॒र्कैः । द॒त्ऽभिः । न । जि॒ह्वा । परि॑ऽविष्टम् । आद॑त् । आ॒विः । नि॒धीन् । अ॒कृ॒णो॒त् । उ॒स्रिया॑णाम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
यदा वलस्य पीयतो जसुं भेद्बृहस्पतिरग्नितपोभिरर्कैः । दद्भिर्न जिह्वा परिविष्टमाददाविर्निधीँरकृणोदुस्रियाणाम् ॥
स्वर रहित पद पाठयदा । वलस्य । पीयतः । जसुम् । भेत् । बृहस्पतिः । अग्नितपःऽभिः । अर्कैः । दत्ऽभिः । न । जिह्वा । परिऽविष्टम् । आदत् । आविः । निधीन् । अकृणोत् । उस्रियाणाम् ॥ १०.६८.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 68; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(बृहस्पतिः) महान् ज्ञान का पालक परमात्मा (यदा पीयतः-वलस्य-जसुम्) जब हिंसक आवरक अज्ञान के प्रयत्न-प्रभाव को (अग्नितपोभिः-अर्कैः) अग्नितापों के समान वेदमन्त्रों से (भेत्) छिन्न-भिन्न करता है, तब (दद्भिः परिविष्टं जिह्वा-आदत्) दाँतों से परिपिष्ट-चबाये हुए अन्न को जैसे जिह्वा भक्षण करती है, पुनः (उस्रियाणां निधीन्) प्रकट होती हुई वाणियों की निधियों-विद्याविषयों को (आविः-कृणोति) शिष्यों में आविष्कृत करता है ॥६॥
भावार्थ
परमात्मा अज्ञान के आवरक बल को नष्ट करने के हेतु वेदमन्त्रों से ज्ञान को फैलाता है, जिन मन्त्रों में ज्ञान के कोष निहित हैं ॥६॥
विषय
अन्नवत् शत्रुदल के ग्रसने का उपदेश। पक्षान्तर में—मन्त्रों से ज्ञानप्राप्ति का उपदेश।
भावार्थ
(बृहस्पतिः) बड़ी भारी सेना और राज्यव्यवस्था का पालक पुरुष (पीयतः) प्रजा के पीड़क (वलस्य) राष्ट्र को चारों ओर से घेरने वाले शत्रु के (जसुं भेत्) नाशकारी सैन्य वा शस्त्र-बल को भेदन करता है, उसमें फूट डालकर वा शस्त्रास्त्र बल से उनको तोड़ फोड़ देता है और जिस प्रकार (जिह्वा दद्भिः परिविष्टं) जीभ दांतों से पिसे अन्न को (आदत्) खा लेती है उसी प्रकार वह भी (अग्नितपोभिः) अग्नि वा सूर्य के समान अग्निमय अस्त्रों से शत्रु को संताप जनक (अर्कैः) किरणों, अस्त्रों वा तेजस्वी पुरुषों के सन्धि आदि वचनों से (परिविष्टम्) चारों तरफ फैले शत्रु को भी (आदत्) खा जावे, उनको ग्रस ले वा नष्ट करे और (उस्त्रियाणां) भूमियों के (निधीन्) अन्न, सुवर्णादि धातुओं और रत्नादि रूप खजानों को (आविः अकृणोत्) प्रकट करे। (२) उसी प्रकार वेदवाणी का पालक ज्ञानी पुरुष नाशकारी अज्ञान, मोह के विनाशक प्रभाव को छिन्न भिन्न कर अग्नि के तुल्य तपों वाले (अर्कैः) अर्चना योग्य वेद मन्त्रों द्वारा वाणी के तुल्य ही (परि-विष्टम्) सर्वव्यापक प्रभु का (आदत्) ग्रहण करे, उसका ज्ञान प्राप्त करे और (उस्त्रियाणां निधीन्) वाणियों के परम निधियों रूप आश्रमों को (अकृणोत्) उत्पन्न करे। नाना शिष्यों को विद्वान् वेदनिधि बनाये।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अयास्य ऋषिः॥ बृहस्पतिर्देवता। छन्दः— १, १२ विराट् त्रिष्टुप्। २, ८—११ त्रिष्टुप्। ३–७ निचृत् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान प्राप्ति का उपदेश
पदार्थ
वेदवाणी का पालक ज्ञानी पुरुष नाशकारी अज्ञान के विनाशक प्रभाव को छिन्न-भिन्न कर, अग्नि के तुल्य प्रकाशवाले (अर्कैः) = अर्चनायोग्य वेद मन्त्रों द्वारा ही (परि- विष्टम्) = सर्वव्यापक प्रभु का (आदत्) = ग्रहण करे, उसका ज्ञान प्राप्त करे, और (उस्त्रियाणां निधीन्) = वाणियों के परमविधि रूप (अकृणोत्) = नाना शिष्यों को वेदनिधि बनावे ।
भावार्थ
भावार्थ - आचार्य शिष्यों को वेदवित् बनावे ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(बृहस्पतिः) महतो ज्ञानस्य पालकः परमात्मा (यदा पीयतः-वलस्य जसुम्) यदा हिंसतः-आवरकाज्ञानस्य प्रयत्नं प्रभावम् (अग्नितपोभिः-अर्कैः) अग्नितापैरिव मन्त्रैः (भेत्) भिनत्ति, तदा (दद्भिः परिविष्टं जिह्वा-आदत्) दन्तैः “दन्तस्य ददादेशः” परिपिष्टमन्नम् ‘पकारस्य वकारश्छान्दसः’ यथा जिह्वा भक्षयति, पुनः (उस्रियाणां निधीन्-आविः-कृणोत्) उस्रवन्तीनां वाचां निधीन् विद्याविषयानाविष्करोति शिष्येषु ॥६॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When Brhaspati with the flames of fire and rays of the light of his creative will breaks through the darkness of nescience covering the primeval potential existence and takes it over as the tongue takes over the food crushed by teeth, then he opens up and reveals the vast reservoir of his energies of the dynamics of creative nature.
मराठी (1)
भावार्थ
अज्ञानाचे आवरण नष्ट करण्यासाठी ज्या मंत्रामध्ये ज्ञानाचे कोष निहित आहेत, परमात्मा त्या वेदमंत्रांचे ज्ञान प्रसृत करतो. ॥६॥
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