ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 69/ मन्त्र 2
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
घृ॒तम॒ग्नेर्व॑ध्र्य॒श्वस्य॒ वर्ध॑नं घृ॒तमन्नं॑ घृ॒तम्व॑स्य॒ मेद॑नम् । घृ॒तेनाहु॑त उर्वि॒या वि प॑प्रथे॒ सूर्य॑ इव रोचते स॒र्पिरा॑सुतिः ॥
स्वर सहित पद पाठघृ॒तम् । अ॒ग्नेः । व॒ध्रि॒ऽअ॒श्वस्य॑ । वर्ध॑नम् । घृ॒तम् । अन्न॑म् । घृ॒तम् । ऊँ॒ इति॑ । अ॒स्य॒ । भेद॑नम् । घृ॒तेन॑ । आऽहु॑तः । उ॒र्वि॒या । वि । प॒प्र॒थे॒ । सूर्यः॑ऽइव । रो॒च॒ते॒ । स॒र्पिःऽआ॑सुतिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
घृतमग्नेर्वध्र्यश्वस्य वर्धनं घृतमन्नं घृतम्वस्य मेदनम् । घृतेनाहुत उर्विया वि पप्रथे सूर्य इव रोचते सर्पिरासुतिः ॥
स्वर रहित पद पाठघृतम् । अग्नेः । वध्रिऽअश्वस्य । वर्धनम् । घृतम् । अन्नम् । घृतम् । ऊँ इति । अस्य । भेदनम् । घृतेन । आऽहुतः । उर्विया । वि । पप्रथे । सूर्यःऽइव । रोचते । सर्पिःऽआसुतिः ॥ १०.६९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 69; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
विषय - घृत से अग्नि के तुल्य तेजस्वी राजा का वर्णन।
भावार्थ -
जिस प्रकार (अग्नेः) अग्नि का (घृतम् वर्धनम्) घृत अर्थात् धारारूप से सेचन करने योग्य घी ही वृद्धि का कारण होता है, इसी प्रकार (वध्रि-अश्वस्य) शत्रु के वधकारी, वेगवान् अश्व, सैन्य रथादि का स्वामी, विजयी, अग्रणी नायक का भी (घृतम्) तेज ही (वर्धनम्) वृद्धिकारक और शत्रु को काट गिराने का साधन है। जिस प्रकार अग्नि का (घृतम् अन्नम्) घी ही अन्न के तुल्य खाद्य है उसी प्रकार सेनापति विजयी का भी (घृतम् अन्नम्) तेज ही प्राण धारण कराने वाला है। (घृतम् उ अस्य मेदनम्) घृत ही जिस प्रकार अग्नि का पोषणकारक है, उसी प्रकार (घृतम् उ अस्य मेदनम्) तेज ही इस सेनानायक दण्डाध्यक्ष का ‘मेदन’ अर्थात् अन्य शत्रुओं के साथ स्नेह वा संधिपूर्वक मिलने का कारण होता है, उसमें यह तेज न हो तो अन्य शत्रु उस पर चढ़ाई कर उससे विग्रह कर लें। (घृतेन आहुतः वि पप्रथे) घृत की आहुति पाकर जिस प्रकार अग्नि बढ़ता है उसी प्रकार वह भी अपने (घृतेन) तेज और अभिषेक से (आ-हुतः) आदरपूर्वक प्रमुख अध्यक्ष स्वीकृत होकर विशेष रूप से ख्याति लाभ करे। (सर्पिः-आसुतिः) जिस प्रकार अग्नि घृत की आहुति पाकर (सूर्यः इव रोचते) सूर्य के तुल्य दीप्ति से चमकता है उसी प्रकार राजा वा सेनाध्यक्ष (सर्पिः-सुतिः) सर्पण अर्थात् आगे बढ़ने वाले सैन्यों के बल से ऐश्वर्य को अपने चारों ओर लिये हुए, (सूर्यः इव) वेगवान् किरणों के ऐश्वर्य से युक्त सूर्य के समान (रोचते) शोभा देता है।
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सुमित्रो वाध्र्यश्वः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृज्जगती। २ विराड् जगती। ३, ७ त्रिष्टुप्। ४, ५, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९, ११ विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम॥
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