ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 7
ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी
देवता - देवाः
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
यद्दे॑वा॒ यत॑यो यथा॒ भुव॑ना॒न्यपि॑न्वत । अत्रा॑ समु॒द्र आ गू॒ळ्हमा सूर्य॑मजभर्तन ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । दे॒वाः॒ । यत॑यः । य॒था॒ । भुव॑नानि । अपि॑न्वत । अत्र॑ । स॒मु॒द्रे । आ । गू॒ळ्हम् । आ । सूर्य॑म् । अ॒ज॒भ॒र्त॒न॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यद्देवा यतयो यथा भुवनान्यपिन्वत । अत्रा समुद्र आ गूळ्हमा सूर्यमजभर्तन ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । देवाः । यतयः । यथा । भुवनानि । अपिन्वत । अत्र । समुद्रे । आ । गूळ्हम् । आ । सूर्यम् । अजभर्तन ॥ १०.७२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
विषय - मेघों के तुल्य सूर्यादि लोकों के कर्त्तव्य। सूर्य के किरणों के तुल्य देहधारियों के कर्त्तव्य। पक्षान्तर में—विद्वानों का मेघादिवत् उदार कर्त्तव्य।
भावार्थ -
(य) जिस प्रकार (यतयः) मेघ, (देवाः) जल देने वाले होकर (भुवनानि) समस्त लोकों को (अपिन्वत) सेंचते हैं उसी प्रकार (यतयः) यत्नवान्, विशेष यत्न, गति, बल देने वाले, स्वयं बली (देवाः) तेजोमय सूर्यादि लोक भी (भुवनानि अपिन्वत) उत्पन्न हुए जीवों को, वा जीवों के उत्पन्न होने के योग्य भूमि आदि लोकों को (अपिन्वत) जीवन तत्त्व और जीवनोपयोगी प्रकाश, जल, वायु आदि पदार्थों से पूर्ण करते हैं। जिस प्रकार (देवाः) सूर्य के द्योतक किरण गूढ़ प्रकाश से ढके सूर्य को धारण करते हैं उसी प्रकार ये समस्त लोक (अत्र) इस (समुद्रे) महान आकाश में (आगूढम्) आवृत (सूर्यम्) सूर्य को (आ अजभर्तन) धारण करते हैं। (२) (यतयः देवाः) यत्नवान्, जितेन्द्रिय विद्वान् पुरुष, (भुवनानि अपिन्वत) मेघों और किरणों के तुल्य ही समस्त लोकों पर ज्ञान और शान्तिदायक पदार्थों की वृष्टि कर उनकी वृद्धि करें। महान् समुद्रवत् विशाल जन समुदाय के बीच स्थिर सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष को अन्य जन (अजभर्तन) राजा बना कर धारण करें।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
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