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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जनि॑ष्ठा उ॒ग्रः सह॑से तु॒राय॑ म॒न्द्र ओजि॑ष्ठो बहु॒लाभि॑मानः । अव॑र्ध॒न्निन्द्रं॑ म॒रुत॑श्चि॒दत्र॑ मा॒ता यद्वी॒रं द॒धन॒द्धनि॑ष्ठा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जनि॑ष्ठाः । उ॒ग्रः । सह॑से । तु॒राय॑ । म॒न्द्रः । ओजि॑ष्ठः । ब॒हु॒लऽअ॑भि॑मानः । अव॑र्धन् । इन्द्र॑म् । म॒रुतः॑ । चि॒त् । अत्र॑ । मा॒ता । यत् । वी॒रम् । द॒धन॑त् । धनि॑ष्ठा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनिष्ठा उग्रः सहसे तुराय मन्द्र ओजिष्ठो बहुलाभिमानः । अवर्धन्निन्द्रं मरुतश्चिदत्र माता यद्वीरं दधनद्धनिष्ठा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनिष्ठाः । उग्रः । सहसे । तुराय । मन्द्रः । ओजिष्ठः । बहुलऽअभिमानः । अवर्धन् । इन्द्रम् । मरुतः । चित् । अत्र । माता । यत् । वीरम् । दधनत् । धनिष्ठा ॥ १०.७३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 3; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    (यत्) जिस (वीरं) वीर को (धनिष्ठा) गर्भ धारण करने वालों में सर्वश्रेष्ठ धन, ऐश्वर्य, सौभाग्यों से सम्पन्नतम (माता) मान, आदर करने वाली, माता के समान भूमि, भूमिवासिनी प्रजा (दधनत्) धारण करती है वह (उग्रः) उत्तम, सर्वोपरि आज्ञा-वचनों का कहने वाला, शत्रुओं को भीतिप्रद, (मन्द्रः) स्तुतियोग्य, (ओजिष्ठः) अति बल-पराक्रमशाली, (बहुल-अभिमानः) बहुत अभिमान, आत्म-सन्मान को धारण करने वाला, स्वामी राजा, सेनापति, (सहसे तुराय) शत्रुओं को पराजित करने और उनका नाश करने के लिये ही (जनिष्ठाः) उत्पन्न होता है। (अत्र) इस कार्य में (मरुतः चित्) वायुओं के तुल्य बलवान् वीर सैन्यगण, और देश देशान्तर में भ्रमण करने वाले वैश्यगण बरसते मेघवत् शस्त्रास्त्रवर्षी और शत्रुओं के मारने और युद्ध में स्वयं मरने वाले पराक्रमी शूरवीरगण तथा अन्य भी सामान्य प्रजाजन, मुख्य प्राण आत्मा को देह में अन्य प्राणों के तुल्य उस (इन्द्रम्) शत्रुओं को छिन्न भिन्न करने वाले को (अवर्धन) बढ़ावें। अर्थात् जो शत्रुओं को दबा और नाश कर सके उसे प्रजाएं भी बढ़ाती हैं, ऐसे ही वीर पुरुष को उत्तम माताएं अपनी कोख से पैदा करें तो ही वे सच्ची माता हैं, अन्यथा बन्ध्या के तुल्य हैं। (२) परमेश्वर, दुष्टों का घर्षण और नाश करता वह सर्वोपरि शक्तिमान् और बहुत लोकों का सर्वतः प्रत्यक्ष हाथ पर घरे बेर-आमले के तुल्य साक्षात् देखता और जानता और सर्वोपरि थामता है, सब सूर्यादि लोक उसी शक्ति को पुष्ट, प्रमाणित करते हैं। सर्वप्रेरक को सर्व सौभाग्यवती धारयित्री प्रकृति धारण करती है। (३) आचार्य पक्ष में ‘वि-ईरं’—विशेष उपदेष्टा, ‘इन्द्र’—ज्ञानद्रष्टा, ‘बहुलाभि-मानं’, अनेक विद्याओं का ज्ञाता, ‘माता’ ज्ञानदात्री, वेदविद्या।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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