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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी देवता - देवाः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स॒प्तभि॑: पु॒त्रैरदि॑ति॒रुप॒ प्रैत्पू॒र्व्यं यु॒गम् । प्र॒जायै॑ मृ॒त्यवे॑ त्व॒त्पुन॑र्मार्ता॒ण्डमाभ॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्तऽभिः॑ । पु॒त्रैः । अदि॑तिः । उप॑ । प्र । ऐ॒त् । पू॒र्व्य॑म् । यु॒गम् । प्र॒ऽजायै॑ । मृ॒त्यवे॑ । त्व॒त् । पुनः॑ । मा॒र्ता॒ण्डम् । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्तभि: पुत्रैरदितिरुप प्रैत्पूर्व्यं युगम् । प्रजायै मृत्यवे त्वत्पुनर्मार्ताण्डमाभरत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्तऽभिः । पुत्रैः । अदितिः । उप । प्र । ऐत् । पूर्व्यम् । युगम् । प्रऽजायै । मृत्यवे । त्वत् । पुनः । मार्ताण्डम् । आ । अभरत् ॥ १०.७२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4

    भावार्थ -
    (सप्तभिः पुत्रैः) सातों पुत्रों के साथ (अदिति) वह अविनाशिनी शक्ति (पूर्व्यं युगम्) पूर्वकाल में (उप प्र ऐत्) आती है और जाती है। और वह जीव (प्रजायै) प्रजा सन्तान आदि को उत्पन्न करने और फिर (मृत्यवे) मृत्यु के लिये (त्वत्) तुझ से ही हे प्रकृते ! (मार्ताण्डम्) मृत् जड़ तत्व के बने अण्ड वा जीवित देह को (आ भभरत्) प्राप्त करता है। अर्थात् शरीर धारण के भी पूर्व आत्मा में सातों प्राणों का सामर्थ्य रहता है और शरीर त्यागने के बाद भी वह सामर्थ्य रहते हैं। परन्तु इस शरीर में उसके प्रजोत्पत्ति, मृत्यु अर्थात् भूख और प्यास ये धर्म विशेष होते हैं। इति द्वितीयो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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