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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 9
    ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी देवता - देवाः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स॒प्तभि॑: पु॒त्रैरदि॑ति॒रुप॒ प्रैत्पू॒र्व्यं यु॒गम् । प्र॒जायै॑ मृ॒त्यवे॑ त्व॒त्पुन॑र्मार्ता॒ण्डमाभ॑रत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्तऽभिः॑ । पु॒त्रैः । अदि॑तिः । उप॑ । प्र । ऐ॒त् । पू॒र्व्य॑म् । यु॒गम् । प्र॒ऽजायै॑ । मृ॒त्यवे॑ । त्व॒त् । पुनः॑ । मा॒र्ता॒ण्डम् । आ । अ॒भ॒र॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्तभि: पुत्रैरदितिरुप प्रैत्पूर्व्यं युगम् । प्रजायै मृत्यवे त्वत्पुनर्मार्ताण्डमाभरत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्तऽभिः । पुत्रैः । अदितिः । उप । प्र । ऐत् । पूर्व्यम् । युगम् । प्रऽजायै । मृत्यवे । त्वत् । पुनः । मार्ताण्डम् । आ । अभरत् ॥ १०.७२.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 9
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सप्तभिः पुत्रैः-अदितिः) सात पुत्रों मित्रादि सूर्यनामक या प्रहरों के द्वारा प्रारम्भ सृष्टि में होनेवाले अखण्ड अग्नि या प्रातःकाल की उषा (पूर्व्यं युगम्-उपप्रैत्) आरम्भसृष्टि के समय को वा प्रातःकाल को उपगत होती है (प्रजायै मृत्यवे त्वत्) प्राणिमात्र के और मृत्यु के लिये (पुनः-मार्तण्डं-आभरत्) पुनः-पुनः उदय होते हुए सूर्य को या प्रातःकालवाले प्रहर को धारण करती है ॥९॥

    भावार्थ

    आरम्भसृष्टि में अखण्ड अग्नि खण्डरूप मित्रादिनामक सूर्यभेदों से अथवा प्रातःकाल की उषा प्रहरों के साथ आती है, प्रथम-प्रथम सूर्य या प्रहरों को प्रकट करती है ॥९॥

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    विषय

    आत्मा में ७ प्राणों की शक्ति, उसकी देह-धारक शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (सप्तभिः पुत्रैः) सातों पुत्रों के साथ (अदिति) वह अविनाशिनी शक्ति (पूर्व्यं युगम्) पूर्वकाल में (उप प्र ऐत्) आती है और जाती है। और वह जीव (प्रजायै) प्रजा सन्तान आदि को उत्पन्न करने और फिर (मृत्यवे) मृत्यु के लिये (त्वत्) तुझ से ही हे प्रकृते ! (मार्ताण्डम्) मृत् जड़ तत्व के बने अण्ड वा जीवित देह को (आ भभरत्) प्राप्त करता है। अर्थात् शरीर धारण के भी पूर्व आत्मा में सातों प्राणों का सामर्थ्य रहता है और शरीर त्यागने के बाद भी वह सामर्थ्य रहते हैं। परन्तु इस शरीर में उसके प्रजोत्पत्ति, मृत्यु अर्थात् भूख और प्यास ये धर्म विशेष होते हैं। इति द्वितीयो वर्गः॥

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    सात देवलोक, आठवाँ मर्त्यलोक

    पदार्थ

    [१] (अदितिः) = अविनाशी प्रकृति (सप्तभिः पुत्रैः) = 'मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग और विवस्वान्' नामक सात पुत्रों से (पूर्व्यं युगम्) = देवलोकों के प्रथम युग को (उप प्रैत्) = समीपता से प्राप्त हुई। अर्थात् पहले प्रकृति से मित्र - वरुण आदि नामवाले सात देव [सौर] लोकों का जन्म हुआ । [२] (पुनः) = फिर (त्वत्) = इस एक आठवें मार्ताण्डम् सूर्य को (प्रजायै) = जन्म के लिये व (मृत्यवे) = मृत्यु के लिये (आभरत्) = आकाश में स्थापित किया । इस मर्त्यलोक के सूर्य की गति से ही दिन-रात का निर्माण होता है, ये दिन और रात हमारे जीवन को एक-एक दिन करके काटते चलते हैं और इस प्रकार मृत्यु का कारण बनते हैं । [३] यहाँ भी यह स्पष्ट है कि सम्भवतः ब्रह्माण्ड ८ सौर लोकों से बना हुआ है इनमें सात सौर लोक तो देवलोक हैं और 'यद् देवेषु आयुषम्'='जो देवों में ३०० वर्ष का आयुष्य है' इस मन्त्र - वाक्य के अनुसार इनमें प्राणियों का आयुष्य ३०० वर्ष का है। इस आठवें सौ वर्ष के आयुष्यवाले लोक को उनकी तुलना में मर्त्यलोक नाम दिया गया है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पहले सात देवलोक बने । तदुपरान्त आठवाँ मर्त्यलोक । 'लौक्य बृहस्पति' से दृष्ट इस सूक्त में सृष्ट्युत्पत्ति का सुन्दर वर्णन हुआ है। इस सृष्टि में आठवें मार्ताण्डवाले इस मर्त्यलोक में मनुष्य को चाहिये कि वह 'गौरिवीति शाक्त्य' बने । गौरी [=speech वेदवाणी] वेदवाणी ही है वीति-भोजन जिसका, ऐसा शक्ति का पुत्र । 'ज्ञान- सम्पन्न और सबल' ही पुरुष आदर्श है। यही अगले दो सूक्तों का ऋषि है। इसका चित्रण करते हुए प्रभु कहते हैं कि-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सप्तभिः पुत्रैः-अदितिः) सप्तभिः पुत्रैर्मित्रादिभिः, प्रहरैर्वाऽरम्भसृष्टौ भवोऽखण्डोऽग्निः प्रातस्तनी पुरातनी खलूषा वा (पूर्व्यं युगम्-उपप्रैत्) आरम्भसृष्टिकालं प्रातः-कालं वा-उपगच्छति उपगता भवति (प्रजायै मृत्यवे त्वत्) प्राणिमात्राय प्राणिमात्रस्य “षष्ठ्यर्थे चतुर्थी बहुलमित्यपि” मृत्यवे च अथापि समुच्चयार्थे त्वत् “पर्याय इव त्वदाश्विनं च” [निरु० १।१०] कालगणनया (पुनः-मार्तण्डम्-आभरत्) पुनः पुनरुदयमानं सूर्यं प्रातुःकालकं प्रहरं वा धारयति ॥९॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    With seven of her children mother Aditi retires to the post-pre-creation stage of the Avyakta absolute, but she continues to bear the Martanda, the soul with the subtle body cover during Pralaya, for birth and death again and again in the eternal cycle of existence. (For 8-9, further, refer to Gita, 7, 4-5, and Aitareya Upanishad, 1, 2, 3-5.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीच्या आरंभी अखंड अग्नी खण्डरूप मित्र इत्यादी नावाच्या सूर्यभेदाने किंवा प्रात:काळची उषा प्रहरांसह प्रकट होते. नंतर पुन्हा पुन्हा सूर्य किंवा प्रहरांना प्रकट करते. ॥९॥

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