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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 8
    ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी देवता - देवाः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒ष्टौ पु॒त्रासो॒ अदि॑ते॒र्ये जा॒तास्त॒न्व१॒॑स्परि॑ । दे॒वाँ उप॒ प्रैत्स॒प्तभि॒: परा॑ मार्ता॒ण्डमा॑स्यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ष्टौ । पु॒त्रासः॑ । अदि॑तेः । ये । जा॒ताः । त॒न्वः॑ । परि॑ । दे॒वान् । उप॑ । प्र । ऐ॒त् । स॒प्तऽभिः॑ । परा॑ । मा॒र्ता॒ण्डम् । आ॒स्य॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अष्टौ पुत्रासो अदितेर्ये जातास्तन्व१स्परि । देवाँ उप प्रैत्सप्तभि: परा मार्ताण्डमास्यत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अष्टौ । पुत्रासः । अदितेः । ये । जाताः । तन्वः । परि । देवान् । उप । प्र । ऐत् । सप्तऽभिः । परा । मार्ताण्डम् । आस्यत् ॥ १०.७२.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अदितेः) आरम्भ सृष्टि में वर्तमान अखण्ड अग्नि के (अष्टौ पुत्रासः) मित्रादि आठ पुत्र अथवा अदिति-उषा के आठ प्रहर हैं (तन्वः-परि जाता) उस फैली हुई अग्नि या उषा के पश्चात् प्रकट हुए (सप्तभिः-देवान्-उपप्रैत्) सात लोकों या प्रहरों को उपयुक्त करती है (मार्तण्डं परा-आस्यत्) आठवें मार्तण्ड नामक सूर्य या प्रहर को प्रधानरूप से प्रकाशित करती है, प्रकट करती है ॥८॥

    भावार्थ

    सृष्टि के आरम्भ में अखण्ड अग्नि से सूर्यादि खण्डरूप गोले उत्पन्न होते हैं। प्रधान गोला मार्तण्ड नाम का है एवं प्रातःकाल की उषा से प्रहरों का विकास होता है ॥८॥

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    विषय

    माता से पुत्रों के तुल्य प्रकृति से ८ प्रकृति-विकृतियों की उत्पत्ति। दूर २ तक लोकों में देहवान् सर्ग की सृष्टि। पक्षान्तर में—देह-प्रकृति के आठ पुत्र ८ प्राण।

    भावार्थ

    (अदितेः तन्वः परि जाताः पुत्रासः अष्टौ) माता के शरीर से जिस प्रकार आठ पुत्र उत्पन्न हों उसी प्रकार व्यापक अखण्ड प्रकृति से भी (अष्टौ पुत्राः) आठ पुत्र आठ तत्त्व जो बहुत से लोकों की रक्षा करते हैं उत्पन्न हुए, वह प्रकृति महत्, अहंकार, पञ्च तन्मात्रा अर्थात् सूक्ष्म भूत इन्द्रिय गण (सप्तभिः देवान् उप प्र एैत्) देवों, समस्त तेजोमय सातों लोकों सहित प्राप्त हुई। और इन्द्रियगण वा देह रूप जो उस प्रकृति का विकार था उसे (मार्ताण्डम्) मृत्-स्थूल प्रकृति के बने अण्ड अर्थात् प्राणधारक पिंड को (परा आस्यत्) दूर २ तक समस्त लोकों में उत्पन्न किया। (२) इसी प्रकार अदिति के आठ पुत्र मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग, विवस्वान् और आदित्य हैं। इनमें आठवां आदित्य मार्त्तण्ड सूर्य है उसको (परा आस्यत्) दूर ऊपर फेंका, जो उदित होता है। (३) शरीर रूप अदिति के आठ पुत्र आठ प्राण रूप से उत्पन्न होते हैं, सात तो शिर के सात छिद्र इन्द्रियों को प्राप्त हुए, आठवां अयास्य प्राण, इस मृत्-अण्ड, स्थूल पिंड को संचालित करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    प्रकृति के आठ पुत्र

    पदार्थ

    [१] (अदितेः) = अविनाशी प्रकृति के (अष्टौ पुत्रासः) = आठ पुत्र हैं, (ये) = जो (तन्वः) = उस प्रकृति के शरीर से (परिजाता:) = चारों ओर उत्पन्न हुए । अदिति के ये आठ पुत्र 'मित्र, वरुण, धाता, अर्यमा, अंश, भग और विवस्वान्' इन सात पुत्रों द्वारा यह देवान् देवों को (उप प्रैत्) = समीपता से प्राप्त होती है और आठवें (मार्ताण्डम्) = इस आदित्य को (परा) = देवलोकों से दूर इस मर्त्यलोक के समीप (आस्यत्) = फेंकती है, स्थापित करती है । [३] सम्भवतः यह ब्रह्माण्ड ८ सौर लोकों से बना है। इन आठ में मित्र, वरुण आदि सूर्यों को केन्द्र बनाकर विद्यमान लोक 'देवलोक' कहलाते हैं और आदित्य को केन्द्र में स्थापित करके चलनेवाला यह लोक मर्त्यलोक है। सबसे प्रथम देवलोक 'मित्रलोक' है, दूसरा 'वरुणलोक', तीसरा 'धातृ लोक', चौथा अर्यम-लोक, पाँचवाँ ' अंशलोक', छठा 'भग लोक', सातवाँ 'विवस्वत् लोक' है। इन देवलोकों की समाप्ति पर आठवाँ यह मर्त्यलोक से जिसका सूर्य 'आदित्य' है अथवा जिसे मार्त्ताण्ड भी कहते हैं क्योंकि इसकी गति दिन-रात को बनाती हुई प्राणियों की मृत्यु का कारण बनती है । [४] जो व्यक्ति गुणों की आदान की वृत्तिवाला बनता है और आदित्य की तरह खारे पानी में से भी शुद्ध जल को ही लेनेवाले सूर्य की तरह अच्छाइयों को ही ग्रहण करता है वह आदित्य लोक का विजय करके विवस्वान् के लोक में जन्म लेता है, यहां यह 'विवासयति' ज्ञान-किरणों से अन्धकार को दूर करनेवाला होता है। इस प्रकार से स्वाध्याय से ज्ञान प्रकाश को बढ़ाता हुआ यह इस विवस्वान् के लोक को जीतकर 'भग लोक' में जन्म लेता है। वहाँ प्रभु का भजन उपासन करनेवाला बनकर 'अंशलोक' में पहुँचता है और यहाँ अपनी सम्पत्तियों का अंशापन करता हुआ, सारे का सारा स्वयं न खाकर सदा बाँटता हुआ 'अर्यमा लोकं' में पहुँचता है। यहां 'अरीन् यच्छति' काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का नियमन करता हुआ 'धातृलोक' में जन्म लेता है। यहाँ सबके धारण की वृत्तिवाला बनकर 'वरुण लोक ' में पहुँचता है। यहाँ द्वेष - ईर्ष्या आदि का पूर्णतया निवारण करनेवाला बनकर 'मित्र लोक' में आता है । यह अन्तिम लोक है, यहाँ सबके साथ स्नेह से चलता हुआ यह ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है और जन्म-मरण के चक्र से ऊपर उठ जाता है, प्रकृति से ऊपर उठकर परमेश्वर को पा लेता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रकृति से आठ लोक बने हैं। सात देवलोक हैं, आठवाँ यह मर्त्यलोक । हमें इनका उत्तरोत्तर विजय करते हुए ब्रह्मलोक में पहुँचना है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अदितेः-अष्टौ पुत्रासः) अखण्डाग्नेरादिसृष्टौ वर्तमानस्याग्नेः-पुत्रा मित्रादयो यद्वा-उषसोऽष्टौ प्रहरनामानः (तन्वः-परि जाताः) तताया अनन्तरमेव प्रकटीभूताः (सप्तभिः-देवान्-उपप्रैत्) सप्तभिस्तु द्युलोकस्थान् गोलान् “देवो द्युस्थानो भवतीति वा” [निरु० ७।१।१५] उपयोजयति (मार्तण्डं परा आस्यत्) मार्तण्डनामकं सूर्यं प्रहरं वाऽष्टमं प्रकटयति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Eight are the divine modes of Aditi, eternal inviolable Prakrti, which are evolved from her personality like children bom of the mother (these being Mahan, Ahankara, five material forms and the sense- mind complex which is called Martanda because it bears the soul which passes through the birth and death stages). With seven of these it goes on evolving and the eighth, Martanda, it leaves aside free (to grow by itself with the soul in the human form).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सृष्टीच्या आरंभी अखंड अग्नीद्वारे सूर्य इत्यादी खंडरूप गोल उत्पन्न होतात. मुख्य गोल मार्तण्ड नावाचा आहे. प्रात:काळच्या उषेने प्रहर विकसित होतात. ॥८॥

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