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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 4
    ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी देवता - देवाः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    भूर्ज॑ज्ञ उत्ता॒नप॑दो भु॒व आशा॑ अजायन्त । अदि॑ते॒र्दक्षो॑ अजायत॒ दक्षा॒द्वदि॑ति॒: परि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    भूः । ज॒ज्ञे॒ । उ॒त्ता॒नऽप॑दः । भु॒वः । आशाः॑ । अ॒जा॒य॒न्त॒ । अदि॑तेः । दक्षः॑ । अ॒जा॒य॒त॒ । दक्षा॑त् । ऊँ॒ इति॑ । अदि॑तिः । परि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    भूर्जज्ञ उत्तानपदो भुव आशा अजायन्त । अदितेर्दक्षो अजायत दक्षाद्वदिति: परि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    भूः । जज्ञे । उत्तानऽपदः । भुवः । आशाः । अजायन्त । अदितेः । दक्षः । अजायत । दक्षात् । ऊँ इति । अदितिः । परि ॥ १०.७२.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवानां प्रथमे युगे) दिव्यगुणवाले सूर्यादि के प्रथम सृष्टिकाल में (असतः सत्-अजायत) अव्यक्त उपादान प्रकृति से सत्-व्यक्तरूप जगत् उत्पन्न होता है (तत्परि-उत्तानपदः) उसके पश्चात् व्यक्त विकृति से उत्तानपद-संसारवृक्ष उत्पन्न होता है (ततः-आशा-अजायन्त) फिर संसारवृक्ष से दिशाएँ उत्पन्न हुई हैं (उत्तानपदः भूः-जज्ञे) संसार वृक्ष से पृथिवीलोक उत्पन्न होता है (भुवः-आशाः-अजायन्त) पृथिवीलोक से आशावाले-कामनावाले प्राणी उत्पन्न हुए, इस प्रकार (अदितेः-दक्षः) अखण्ड अग्नि से खण्डरूप सूर्य उत्पन्न हुआ (दक्षात्-उ-अदितिः-परि) सूर्य से उषा उत्पन्न होती है ॥३,४॥

    भावार्थ

    अव्यक्त उपादन प्रकृति से व्यक्त विकृतिरूप उत्पन्न होता है, फिर संसार उत्पन्न होता है, पुनः दिशाएँ प्रकट होती हैं, पश्चात् पृथिवीलोक, पृथिवीलोक से कामनावाले प्राणी उत्पन्न होते हैं। इसी प्रकार आरम्भसृष्टि में अखण्ड अग्नि से सूर्य और सूर्य से उषा का प्रकाश होता है ॥३,४॥

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    विषय

    पृथिवी से स्थावर-जंगम सृष्टि के तुल्य प्रकृति से जगत्-सर्ग का वर्णन।

    भावार्थ

    (भूः उत्तानपदः जज्ञे) पृथिवी जिस प्रकार ऊपर आकाश में फैलने वाले वृक्ष लतादि को वा अपने ऊपर चरणों से चलने वाले अनेक जीवों को उत्पन्न करती है उसी प्रकार (भूः) समस्त जगत् को उत्पन्न करने वाली प्रकृति से ही (उत्तान-पदः) ऊर्ध्व आकाश में गति करने वाले सूर्य चन्द्रादि प्रकट हुए। (भुवः आशाः) जिस प्रकार सर्वोत्पादक पृथिवी से नाना वृक्ष लतादि के खाने वाले जलचर प्राणी उत्पन्न हुए उसी प्रकार (भुवः) सब को उत्पन्न करने वाली मूल प्रकृति से ही (आशाः) व्यापने वाले तेज, अग्नि, आकाश, वायु, जल आदि व्यापन गुण वाले तत्त्व उत्पन्न हुए। (आदितेः दक्षः) जिस प्रकार माता से पुत्र वा सूर्य से दाहक ताप उत्पन्न होता है उसी प्रकार (अदितेः) उस अखण्ड प्रकृति से ही (दक्षः) दग्ध करने वाला अग्नि और बल उत्पादक वायु भी (अजायत) उत्पन्न हुआ। (दक्षात् परि अदितिः) जिस प्रकार पिता से पुत्र उत्पन्न होता है उसी प्रकार (दक्षात्) दग्ध करने वाले सूर्य रूप अग्निमय पिण्ड से (अदितिः) खण्ड न होने वाली दृढ़ यह पृथिवी अथवा इस पृथ्वी पर का यह स्थूल अग्नि उत्पन्न हुआ।

    टिप्पणी

    अदितेर्दक्षोऽजायत दक्षाद्वदितिः परि इति च तत्कथमुपपद्येत। समानजन्मानौ स्यातामिति। अपि वा देवधर्मेणेतरेतरजन्मानौ स्यातामितरेतर प्रकृती। अग्निरप्यदितिरुच्यते। (निरु० ११। २३)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अदिति व दक्ष [प्रकृति परमात्मा]

    पदार्थ

    [१] 'उत्तानपद्' शब्द का अर्थ वृक्ष भी है और परमात्मा भी है [ supreme spirit ] । प्रस्तुत मन्त्र में 'परमात्मा' अर्थ ही अभीष्ट है। [क] (उत्तानपदः) = उस परमात्मा से (भूः जज्ञे) = यह पृथ्वी प्रादुर्भूत की गई। [ख] 'उत्तानपद्' शब्द का वृक्ष ही अर्थ लें तो अर्थ इस प्रकार होगा कि वृक्षों के हेतु से यह पृथ्वी पैदा की गई। (भुवः) = इस पृथ्वी से ही (आशाः अजायन्त) = दिशाओं का प्रादुर्भाव हुआ। पृथ्वी पर रहनेवाली प्राणियों से ही पूर्वादि का व्यवहार किया जाता है। दिशा कोई स्थूल वस्तु न होकर व्यावहारिक वस्तु है और व्यवहार इन चेतन प्राणियों ने ही करना होता है। [२] इस प्रकार (दक्षः) = इस संसार का वर्धन करनेवाले प्रभु (अदितेः) = अविनाशी प्रकृति से [अ+दिति = खण्डन] (अजायत) [अजनयत् ] = इस संसार को जन्म देते हैं। (उ) = और ऐसा भी कह सकते हैं कि (दक्षात्) = उस प्रजापति से यह (अदितिः) = प्रकृति परि अजायत चारों ओर वर्तमान संसार के रूप में हो जाती है। 'दक्ष अदिति से संसार को जन्म देता है' अथवा 'दक्ष से अदिति संसार को जन्म देती है' इन दोनों वाक्यों का अन्तिम भाव समान ही है। 'पिता माता द्वारा पुत्र को जन्म देता है', 'अथवा माता पिता द्वारा पुत्र को जन्म देती है' इन दोनों वाक्यों में जन्म तो माता ही देती है, इसी प्रकार प्रकृति ही संसार को उत्पन्न करती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- पृथ्वी हुई और वनस्पतियाँ उत्पन्न हुईं तथा दिशाओं का व्यवहार प्रसिद्ध हुआ । दक्ष की अध्यक्षता में अदिति ने सृष्टि को जन्म दिया ।

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अन्योर्मन्त्रयोरेकवाक्यताऽस्त्यतः सहैव व्याख्यायेते।

    पदार्थः

    (देवानां प्रथमे युगे-असतः सत्-अजायत) दिव्यगुणानां सूर्यादीनां प्रथमे काले-अव्यक्तात्-सदात्मकं व्यक्तरूपं जायते (तत् परि-उत्तानपदः) तत्पश्चात् खलु व्यक्तात्मकाद्विकृतेः-उत्तनपदः-संसारवृक्षो जायते (ततः-आशा-अजायन्त) उत्तानपदः-संसारवृक्षात् खल्वाशा-दिशो जायन्ते “आशा दिङ्नाम” [निघ० १।६] (उत्तानपदः-भूः-जज्ञे) संसारवृक्षादनुभूमिः-पृथिवीलोको जायते (भुवः-आशाः-अजायन्त) पृथिवीलोकात्-आशावन्तो जनाः जायमानाः प्राणिनो जायन्ते, एवम् (अदितेः-दक्षः-दक्षाद्-उ-अदितिः परि) अखण्डितेरग्नेः सूर्योऽग्निः खण्डो जायते, सूर्यादनन्तरमदितिरुषा प्राक्तनी जायते ॥३-४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    From Uttanapada arose Bhu, specific possibility, and many more such arose in space in the spatial quarters. From Aditi, inviolable nature, arose Daksha, will and intelligence, and from will and intelligence, Aditi, the desire to grow and procreate further.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    अव्यक्त उपादान प्रकृतीपासून व्यक्त विकृतीरूप उत्पन्न होते नंतर संसार (जग) उत्पन्न होतो. नंतर दिशा प्रकट होतात. त्यानंतर पृथ्वीलोक व पृथ्वीलोकापासून कामनायुक्त प्राणी उत्पन्न होतात. याच प्रकारे सृष्टीच्या आरंभी अखंड अग्नीपासून सूर्य व सूर्यापासून उषेचा प्रकाश पसरतो. ॥३, ४॥

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