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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 72 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 72/ मन्त्र 6
    ऋषिः - बृहस्पतिर्बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी देवता - देवाः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    यद्दे॑वा अ॒दः स॑लि॒ले सुसं॑रब्धा॒ अति॑ष्ठत । अत्रा॑ वो॒ नृत्य॑तामिव ती॒व्रो रे॒णुरपा॑यत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दे॒वाः॒ । अ॒दः । स॒लि॒ले । सुऽसं॑रब्धाः । अति॑ष्ठत । अत्र॑ । वः॒ । नृत्य॑ताम्ऽइव । ती॒व्रः । रे॒णुः । अप॑ । आ॒य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्देवा अदः सलिले सुसंरब्धा अतिष्ठत । अत्रा वो नृत्यतामिव तीव्रो रेणुरपायत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । देवाः । अदः । सलिले । सुऽसंरब्धाः । अतिष्ठत । अत्र । वः । नृत्यताम्ऽइव । तीव्रः । रेणुः । अप । आयत ॥ १०.७२.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 72; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (देवाः) हे प्रकाशमान रश्मियों ! किरणों ! (यत्) जब (अदः सलिले) उस अन्तरिक्ष में (सुसंरब्धाः-अतिष्ठत) दृढ़ता से सम्यक् कार्य युक्त स्थिर हो जाते हैं, (अत्र) इस अवसर पर (नृत्यताम्-इव वः) नाचते हुए जैसे सर्वत्र विचरते हुए तुम्हारा (तीव्रः-रेणुः-अपायत) प्रभावशाली ताप पृथिवी आदि लोकों पर पड़ता है ॥६॥

    भावार्थ

    सूर्य की किरणें जब अन्तरिक्ष में दृढ़ हो जाती हैं, तो सर्वत्र नाचती हुई सी सर्वत्र विचरती हैं, तो इनका प्रभावशाली ताप पृथिवी आदि लोकों पर पड़ता है ॥६॥

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    विषय

    प्रकृतिमय लोकों में जीवसर्ग। पक्षान्तर में—आचार्य कुल में शिष्यों का सर्ग और उनकी सदाचार से उन्नति।

    भावार्थ

    (यत्) जो (देवाः) प्रकाशमय सूर्य आदि आकाशीय पिण्ड (अदः) इस दूर तक फैले (सलिले) प्रधान कारण तत्व वा महान् आकाश में (सु-संरब्धाः) उत्तम रीति से बने और गतिशील होकर (अतिष्ठत) विद्यमान हैं। हे जीवो ! (अत्र) इन लोकों में ही (नृत्यतां इव वः) नाचते हुए, आनन्द विनोद करते हुए आपलोगों का (तीव्रः रेणुः) अति वेगयुक्त अंश, आत्मा स्वतः रेणुवत् अणु-परिमाण वा गतिशील है वह (अप आयत) शरीर से पृथक् होकर लोकान्तर में आता जाता है। (२) इसी प्रकार हे (देवाः) विद्वान् लोगो ! (यत् अदः सलिले) आप लोग उस जल के समान अति शान्तिदायक गुरु के अधीन (सु-संरब्धाः) उत्तम रीति से व्यवस्थित होकर रहते हो, (नृत्यताम् इव रेणुः) खेलते नाचते लोगों की जिस प्रकार धूली उठती है उसी प्रकार (वः) आप लोगों में से (रेणुः तीव्रः) धूलिवत् तीव्र रजोभाव (अप आयत) दूर हो जावे आप लोग शान्त गम्भीर होकर जितेन्द्रिय हो जाओ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    बृहस्पतिरांगिरसो बृहस्पतिर्वा लौक्य अदितिर्वा दाक्षायणी ऋषिः। देवा देवता ॥ छन्दः — १, ४, ६ अनुष्टुप्। २ पादनिचृदुनुष्टुप्। ३, ५, ७ निचदनुष्टुप्। ८, ६ विराड्नुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'सुसंरब्ध' देव तथा उल्कापात

    पदार्थ

    [१] (यद्) = जो (देवाः) = प्रकृति से उत्पन्न हुए हुए ये दिव्य लोक-लोकान्तर हैं, वे सब (अदः सलिले) = उस महान् अन्तरिक्ष में [ सलिले = अन्तरिक्षे ७ । ४९ । १ द०] (सुसंरब्धा:) = बहुत अच्छी प्रकार आपस में जुड़े हुए [cloudly joined] न असम्बद्ध रूप में (अतिष्ठत) = अपनी-अपनी मर्यादा में स्थित हैं । जैसे फूल अलग-अलग होते हुए भी एक माला में पिरोये हुए होते हैं, उसी प्रकार ये लोक-लोकान्तर अलग-अलग होते हुए भी प्रभु रूप सूत्र में पिरोये हुए हैं। ब्रह्माण्ड के अवयवभूत ये लोक-लोकान्तर अलग-अलग होते हुए भी मिलकर एक ब्रह्माण्ड की इकाई को बनाते हैं । सब पिण्ड अव्यवस्थित न होकर एक व्यवस्था में चल रहे हैं, इसी से ये कहीं टकराते नहीं। अपनी-अपनी मर्यादा में स्थित हुए हुए अपने मार्ग का आक्रमण कर रहे हैं। [२] (अत्रा) = इस विशाल अन्तरिक्ष में (नृत्यतां इव) = नृत्य-सा करते हुए (वः) = इन सब पिण्डों का (तीव्रः रेणुः) = अन्य सारे पिण्ड की अपेक्षा कुछ तीव्र गति में हुआ हुआ शिथिल भाग [रेणु] (अप अयत) = उस पिण्ड दूर किसी ओर पिण्ड की ओर चला जाता है। इसे ही व्यवहार में उल्कापात कहते हैं। आकाश में तारे नृत्य-सा करते हुए प्रतीत होते हैं, उनका टिमटिमाना ऐसा ही लगता है। इन तारों का पृथ्वी की धूल की तरह जो शिथिल भाग होता है, वह कभी-कभी समीप से गति करते हुए किसी और पिण्ड की ओर चला जाता है। साधारण लोग इसे 'तारा टूटना' कह देते हैं । इन उल्कापातों से अन्य पिण्डों की रचना का ज्ञान होने में बहुत कुछ सहायता मिलती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - आकाश में वर्तमान ये सब पिण्ड अलग-अलग होते हुए भी परस्पर व्यवस्था में सम्बद्ध हैं। कभी-कभी इनका कोई शिथिल भाग तीव्र गति होकर दूसरे पिण्ड की ओर चला जाता है ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (देवाः-यत्-अदः-सलिले) हे प्रकाशमाना रश्मयः ! यदा अमुष्मिन् ‘अदस् शब्दात्-‘ङि’ विभक्तेर्लुक्’ “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] अन्तरिक्षे “सलिलस्य-अन्तरिक्षस्य” [ऋ० ७।४९।१ दयानन्दः] (सुसंरब्धाः-अतिष्ठत) दृढत्वेन सम्यक् कार्ययुक्ताः स्थिता आसन् (अत्र) अस्मिन्नवसरे (नृत्यताम्-इव वः) नृत्यताम्-इव सर्वत्र विचरतां युष्माकं (तीव्रः-रेणुः-अपायत) तीव्रः प्रभावशाली तापः-अपगच्छति लोकेष्वपसरति ॥६॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O Devas, when you abide and play together dancing as if joyously in that vast space, then your radiant energy and ecstasy rises high (to receive the descent of life as the ripe gift of the sun on high).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्याची किरणे जेव्हा अंतरिक्षात दृढ होतात तेव्हा सर्वत्र नृत्य करत असल्यासारखी दिसतात. तेव्हा त्यांचा प्रभाव पृथ्वी इत्यादी लोकांवर पडतो. ॥६॥

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