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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 73 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 73/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गौरिवीतिः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वय॑: सुप॒र्णा उप॑ सेदु॒रिन्द्रं॑ प्रि॒यमे॑धा॒ ऋष॑यो॒ नाध॑मानाः । अप॑ ध्वा॒न्तमू॑र्णु॒हि पू॒र्धि चक्षु॑र्मुमु॒ग्ध्य१॒॑स्मान्नि॒धये॑व ब॒द्धान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वयः॑ । सु॒ऽप॒र्णाः । उप॑ । से॒दुः॒ । इन्द्र॑म् । प्रि॒यऽमे॑धाः । ऋष॑यः । नाध॑मानाः । अप॑ । ध्वा॒न्तम् । ऊ॒र्णु॒हि । पू॒र्धि । चक्षुः॑ । मु॒मु॒ग्धि । अ॒स्मान् । नि॒धया॑ऽइव । ब॒द्धान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वय: सुपर्णा उप सेदुरिन्द्रं प्रियमेधा ऋषयो नाधमानाः । अप ध्वान्तमूर्णुहि पूर्धि चक्षुर्मुमुग्ध्य१स्मान्निधयेव बद्धान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वयः । सुऽपर्णाः । उप । सेदुः । इन्द्रम् । प्रियऽमेधाः । ऋषयः । नाधमानाः । अप । ध्वान्तम् । ऊर्णुहि । पूर्धि । चक्षुः । मुमुग्धि । अस्मान् । निधयाऽइव । बद्धान् ॥ १०.७३.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 73; मन्त्र » 11
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 6

    भावार्थ -
    जिस प्रकार (वयः) अति प्रकाशमान्, कान्तियुक्त, (सुपर्णाः) सुख से जगत् को पालन और पूर्ण करने वाले सूर्य के किरण, (ऋषयः) समस्त पदार्थों को दिखाते हैं, (प्रिय-मेधाः) अनेक अन्नों को पुष्ट करते हैं वे (नाधमानाः) तीव्र ताप उत्पन्न करते हुए (इन्द्रम् उप सेदुः) अति तेजस्वी सूर्य को ही प्राप्त होते हैं। उदय काल में उससे ही प्रकट होकर उसी में पुनः आश्रित रहते हैं। उसी प्रकार (वयः) ज्ञानवान् (सुपर्णाः) शुभ मार्ग से जाने वाले, देवयानगामी, (प्रिय-मेधाः) प्रभु परमेश्वर वा ज्ञानी पुरुषों के सत्संग के प्यारे, वा मेधा नाम परम बुद्धि के प्रिय वा यज्ञ, अन्नादि को चाहने और उस ही से तृप्त होने वाले अति अहिंसक, (ऋषयः) ज्ञान-तत्वदर्शी जन (नाधमानाः) परमेश्वर से प्रार्थना करते हुए उसी (इन्द्रम् उप-सेदुः) परमैश्वर्यप्रद, इस जाल के काटने वाले प्रभु की उपासना करते और उसे ही प्राप्त करते हैं। प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो ! (ध्वान्तम् अप ऊर्णुहि) तु हमारे अन्धकार को दूर कर, (चक्षुः पूर्धि) प्रकाश से हमारी भीतरी ज्ञान-चक्षुओं को पूर्ण कर (निधया इव बद्वान्) पाश में फंसे पक्षियों के तुल्य (अस्मान्) हमको (मुमुग्धि) बन्धन से मुक्त कर। इति चतुर्थो वर्गः॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गौरिवीतिर्ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः— १, २, ५ त्रिष्टुप्। ३, ४, ८, १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ६ विराट् त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ९ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ११ निचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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