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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 75 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 75/ मन्त्र 8
    ऋषिः - सिन्धुक्षित्प्रैयमेधः देवता - नद्यः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    स्वश्वा॒ सिन्धु॑: सु॒रथा॑ सु॒वासा॑ हिर॒ण्ययी॒ सुकृ॑ता वा॒जिनी॑वती । ऊर्णा॑वती युव॒तिः सी॒लमा॑वत्यु॒ताधि॑ वस्ते सु॒भगा॑ मधु॒वृध॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽअश्वा॑ । सिन्धुः॑ । सु॒ऽरथा॑ । सु॒ऽवासाः॑ । हि॒र॒ण्ययी॑ । सुऽकृ॑ता । वा॒जिनी॑ऽवती । ऊर्णा॑ऽवती । यु॒व॒तिः । सी॒लमा॑ऽवती । उ॒त । अधि॑ । व॒स्ते॒ । सु॒ऽभगा॑ । म॒धु॒ऽवृध॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वश्वा सिन्धु: सुरथा सुवासा हिरण्ययी सुकृता वाजिनीवती । ऊर्णावती युवतिः सीलमावत्युताधि वस्ते सुभगा मधुवृधम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽअश्वा । सिन्धुः । सुऽरथा । सुऽवासाः । हिरण्ययी । सुऽकृता । वाजिनीऽवती । ऊर्णाऽवती । युवतिः । सीलमाऽवती । उत । अधि । वस्ते । सुऽभगा । मधुऽवृधम् ॥ १०.७५.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 75; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    वह (सिन्धुः) सब को बांधने वाली शक्ति, आत्मा, (युवतिः) तरुणी स्त्री के समान, बलवती, सबको अपने साथ मिलाए रखने वाली, (सु-अश्वा) उत्तम अश्वों, इन्द्रियगण की स्वामिनी, (सु-रथा) उत्तम रथवत् देह की अधिष्ठात्री, (हिरण्ययी) सुवर्ण के समान कान्तियुक्त, प्रकाशस्वरूप, (सु-कृता) उत्तम कर्म करने वाली, (वाजिनी-वती) वेगवती, ऐश्वर्यवती, बलवती, (ऊर्णावती) आच्छादक लोम, त्वचा वा देहादि से युक्त (सीलमा-वती) नाना नाड़ियों के जाल-बन्धन से युक्त, (सु-भगा) उत्तम सेवनीय ऐश्वर्य की स्वामिनी होकर (मधु-वृधं) मधु, मधुर अन्नादि से वृद्धि पाने वाले देह में (वस्ते) निवास करती है। (२) युवति पक्ष में—युवति (सु-अश्वा सु-रथा) उत्तम अश्व और रथ वाली, हिरण्ययी और काञ्चन देह, वा आभूषण पहिने वा उत्तम कार्यकुशल अन्नसम्पदा की स्वामिनी, (ऊर्णावती) उत्तम आच्छादन वस्त्र वाली (सीलमावती) उत्तम केशादि वेणी बन्धन से युक्त, (सु-भगा) सौभाग्यवती, (मधु-वृधं वस्ते) अन्नादि वर्द्धक क्षेत्र वा गृह में रहती वा मधु अर्थात् मधुपर्कादि से वृद्धिमान्, आदर के योग्य पुरुष को प्राप्त कर उसके आश्रय पर रहती है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - सिन्धुक्षित्प्रैयमेध ऋषिः। नद्यो देवताः॥ छन्दः—१ निचृज्जगती २, ३ विराड जगती। ४ जगती। ५, ७ आर्ची स्वराड् जगती। ६ आर्ची भुरिग् जगती। ८,९ पादनिचृज्जगती॥

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