ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 76/ मन्त्र 7
ऋषिः - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
सु॒न्वन्ति॒ सोमं॑ रथि॒रासो॒ अद्र॑यो॒ निर॑स्य॒ रसं॑ ग॒विषो॑ दुहन्ति॒ ते । दु॒हन्त्यूध॑रुप॒सेच॑नाय॒ कं नरो॑ ह॒व्या न म॑र्जयन्त आ॒सभि॑: ॥
स्वर सहित पद पाठसु॒न्वन्ति॑ । सोम॑म् । र॒थि॒रासः॑ । अद्र॑यः । निः । अ॒स्य॒ । रस॑म् । गो॒ऽइषः॑ । दु॒ह॒न्ति॒ । ते । दु॒हन्ति॑ । ऊधः॑ । उ॒प॒ऽसेच॑नाय । कम् । नरः॑ । ह॒व्या । न । म॒र्ज॒य॒न्ते॒ । आ॒सऽभिः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सुन्वन्ति सोमं रथिरासो अद्रयो निरस्य रसं गविषो दुहन्ति ते । दुहन्त्यूधरुपसेचनाय कं नरो हव्या न मर्जयन्त आसभि: ॥
स्वर रहित पद पाठसुन्वन्ति । सोमम् । रथिरासः । अद्रयः । निः । अस्य । रसम् । गोऽइषः । दुहन्ति । ते । दुहन्ति । ऊधः । उपऽसेचनाय । कम् । नरः । हव्या । न । मर्जयन्ते । आसऽभिः ॥ १०.७६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 76; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 2
विषय - मेघवत् वीर पुरुषों, विद्वानों के कर्त्तव्य। आत्म-साक्षात्कार। गोपालक के समान रस दोहन का उपदेश। मुखों से अन्नों के तुल्य समस्त उत्तम वचनों का सेवन
भावार्थ -
(अद्रयः) जिस प्रकार मेघ (सोमं सुन्वन्ति) जल और अन्न को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार (रथिरासः) रथ वाले महारथी (अद्रयः) पर्वत के तुल्य दृढ़ और मेघवत् शखवर्षी जन (सोमं सुन्वन्ति) राष्ट्र में ऐश्वर्य को उत्पन्न करते हैं। और (रथिरासः) रमण योग्य, आत्मा और देहरूप रथ को वश करने वाले (अद्रयः) स्थिर वा धर्म-मेघ की दशा तक पहुंचे साधक जन (सोमं) सर्व जगद्-उत्पादक प्रभु की (सुन्वन्ति) उपासना करते हैं। वा (सोमं) अपने आत्मा को ही (सुन्वन्ति) साक्षात् करते हैं। वे (गो-इषः) वाणी को प्रेरित करते हुए, स्तुति-प्रार्थनाशील होकर (अस्य रसम्) इस आत्मा के परम आनन्दरूप रस को (निः दुहन्ति) खूब २ प्राप्त करते हैं। (उधः उप-सेचनाय) जिस प्रकार गोपालक जन गाय के थान को दुग्ध के लिये दोहते हैं और जिस प्रकार मनुष्य (उप-सेचनाय) क्षेत्र को सेचने के लिये (ऊधः) जलधारक मेघ वा तालाब से (दुहन्ति) जल प्राप्त करते और जल से क्षेत्रों को वा मेघ के जल से अपने जलाशयों को भर लेते हैं, उसी प्रकार (ते) वे अनेक साधक जन (उप-सेचनाय) आत्मा में ही रस का निषेक करने के लिये (ऊधः) रस से पूर्ण प्रभु से (दुहन्ति) रस को प्राप्त करते हैं। वे (नरः आसभिः हव्या न) जिस प्रकार मनुष्य मुखों से नाना अन्नों को प्राप्त करते अर्थात् खाते हैं उसी प्रकार (नरः) उत्तम मनुष्य (आसभिः) अपने मुखों से (हव्या) स्तुति योग्य, पुकारने योग्य वचनों को (मर्जयन्ते) स्वच्छ करके प्रकट करते हैं।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्प ऋषिः॥ ग्रावाणो देवताः॥ छन्दः- १, ६, ८ पादनिचृज्जगती। २, ३ आर्चीस्वराड् जगती। ४, ७ निचृज्जगती। ५ आसुरीस्वराडार्ची निचृज्जगती॥
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