ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 76/ मन्त्र 8
ऋषिः - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्पः
देवता - ग्रावाणः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
ए॒ते न॑र॒: स्वप॑सो अभूतन॒ य इन्द्रा॑य सुनु॒थ सोम॑मद्रयः । वा॒मंवा॑मं वो दि॒व्याय॒ धाम्ने॒ वसु॑वसु व॒: पार्थि॑वाय सुन्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठए॒ते । न॒रः॒ । सु॒ऽअप॑सः । अ॒भू॒त॒न॒ । ये । इन्द्रा॑य । सु॒नु॒थ । सोम॑म् । अ॒द्र॒यः॒ । वा॒मम्ऽवा॑मम् । वः॒ । दि॒व्याय॑ । धाम्ने॑ । वसु॑ऽवसु । वः॒ । पार्थि॑वाय । सु॒न्व॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
एते नर: स्वपसो अभूतन य इन्द्राय सुनुथ सोममद्रयः । वामंवामं वो दिव्याय धाम्ने वसुवसु व: पार्थिवाय सुन्वते ॥
स्वर रहित पद पाठएते । नरः । सुऽअपसः । अभूतन । ये । इन्द्राय । सुनुथ । सोमम् । अद्रयः । वामम्ऽवामम् । वः । दिव्याय । धाम्ने । वसुऽवसु । वः । पार्थिवाय । सुन्वते ॥ १०.७६.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 76; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 3
विषय - प्रभु की उपासना। उपयोगी समस्त पदार्थों को उत्पन्न करने का उपदेश।
भावार्थ -
हे (नरः) नेता, प्रमुख नायक, उत्तम भद्र पुरुषो ! (अद्रयः सोमं सुन्वन्ति) जिस प्रकार जल से भरे मेघ अन्न, ओषधियों को उत्पन्न करते हैं इसी प्रकार जो लोग (इन्द्राय) ऐश्वर्य की वृद्धि और आत्मा परमात्मा की प्रसन्नता के लिये (सोमं सुनुथ) परम रसरूप आत्मा को प्रेरित करते हो। (एते) वे आप (अद्रयः) आदर योग्य जन (सु-अपसः अभूतन) उत्तम २ कर्म करने वाले होवो। आप लोग (दिव्याय धाम्ने) अति देदीप्यमान धाम, लोक के प्राप्त करने के लिये (वामं वामं) अति सेवनीय प्रभु की (सुनुत) उपासना करो और (वः) आप लोग (पार्थिवाय) अपने पृथिवी से बने देह और पृथिवी पर के जीवन के (सुन्वते) प्रेरक मनुष्य के लिये (वसु-वसु) यहां निवास योग्य प्रत्येक पदार्थ को (सुनुत) उत्पन्न करो। इति नवमो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - जरत्कर्ण ऐरावतः सर्प ऋषिः॥ ग्रावाणो देवताः॥ छन्दः- १, ६, ८ पादनिचृज्जगती। २, ३ आर्चीस्वराड् जगती। ४, ७ निचृज्जगती। ५ आसुरीस्वराडार्ची निचृज्जगती॥
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