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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 78/ मन्त्र 2
    ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः देवता - मरूतः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    अ॒ग्निर्न ये भ्राज॑सा रु॒क्मव॑क्षसो॒ वाता॑सो॒ न स्व॒युज॑: स॒द्यऊ॑तयः । प्र॒ज्ञा॒तारो॒ न ज्येष्ठा॑: सुनी॒तय॑: सु॒शर्मा॑णो॒ न सोमा॑ ऋ॒तं य॒ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । न । ये । भ्राज॑सा । रु॒क्मऽव॑क्षसः । वाता॑सः । न । स्व॒ऽयुजः॑ । स॒द्यःऽऊ॑तयः । प्र॒ऽज्ञा॒तारः॑ । न । ज्येष्ठाः॑ । सु॒ऽनी॒तयः॑ । सु॒ऽशर्मा॑णः । न । सोमाः॑ । ऋ॒तम् । य॒ते ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्न ये भ्राजसा रुक्मवक्षसो वातासो न स्वयुज: सद्यऊतयः । प्रज्ञातारो न ज्येष्ठा: सुनीतय: सुशर्माणो न सोमा ऋतं यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः । न । ये । भ्राजसा । रुक्मऽवक्षसः । वातासः । न । स्वऽयुजः । सद्यःऽऊतयः । प्रऽज्ञातारः । न । ज्येष्ठाः । सुऽनीतयः । सुऽशर्माणः । न । सोमाः । ऋतम् । यते ॥ १०.७८.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 78; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 12; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    (ये) जो (अग्निः न) अग्नियों के समान अति तेजस्वी, शत्रुओं को वा भीतरी पापों को दग्ध करने वाले, (भ्राजसा) तेज से (रुक्म-वक्षसः) तेज को धारण करने वाले वा शरीर पर सुवर्णादि के आभूषण धारण करने वाले हों। वे (वातासः) प्रबल वायुओं के समान (स्व-युजः) अपने को सहायक, स्वयं अन्यों के सहायक वा स्व अर्थात् आत्मा के साथ समाहित, एकाग्र चित्त होने वाले और (स्व-युजः) धन के द्वारा अनेक कार्यों में नियुक्त होने वाले (सद्य-ऊतयः) अति वेग से ठीक समय पर आने और जाने वाले, (प्र-ज्ञातारः) उत्कृष्ट ज्ञान वाले विद्वानों के समान, (ज्येष्ठाः न) प्रशस्त पुरुषों के तुल्य, बड़े, महान्, पूज्य, (सु-नीतयः) उत्तम व्यवहार मार्ग में लेजाने वाले, उत्तम धर्मं-नीति से आचरण करने वाले, (सु-शर्माणः) उत्तम गृहों से सम्पन्न, उत्तम सुख से सम्पन्न, उत्तम शान्तिदायक, (न सोमाः) और सौम्य गुण वाले, विद्वान्, अभिषिक्त, विद्या-निष्णात जन (ऋतं यते) सत्य मार्ग में गमन करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः– आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ८ त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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