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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 78 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 78/ मन्त्र 6
    ऋषिः - स्यूमरश्मिर्भार्गवः देवता - मरूतः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    ग्रावा॑णो॒ न सू॒रय॒: सिन्धु॑मातर आदर्दि॒रासो॒ अद्र॑यो॒ न वि॒श्वहा॑ । शि॒शूला॒ न क्री॒ळय॑: सुमा॒तरो॑ महाग्रा॒मो न याम॑न्नु॒त त्वि॒षा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ग्रावा॑णः । न । सू॒रयः॑ । सिन्धु॑ऽमातरः । आ॒ऽद॒र्दि॒रासः॑ । अद्र॑यः । न । वि॒श्वहा॑ । शि॒शूलाः॑ । न । क्री॒ळयः॑ । सु॒ऽमा॒तरः॑ । म॒हा॒ऽग्रा॒मः । न । याम॑न् । उ॒त । त्वि॒षा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ग्रावाणो न सूरय: सिन्धुमातर आदर्दिरासो अद्रयो न विश्वहा । शिशूला न क्रीळय: सुमातरो महाग्रामो न यामन्नुत त्विषा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ग्रावाणः । न । सूरयः । सिन्धुऽमातरः । आऽदर्दिरासः । अद्रयः । न । विश्वहा । शिशूलाः । न । क्रीळयः । सुऽमातरः । महाऽग्रामः । न । यामन् । उत । त्विषा ॥ १०.७८.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 78; मन्त्र » 6
    अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 13; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    वे (सूरयः) विद्वान् जन (ग्रावाणः न) मेघों के समान (सिन्धु-मातरः) जल प्रवाहों को बनाने वाले, नदी, नहरें बनाने वाले वा सब को नियम व्यवस्था में बांध कर चलाने और शत्रु को कंपित करने वाले, सेनापति वा राजा को स्वयं बनाने वाले वा उसको माता के समान मान्य मानने वाले हों। वे (अद्वयः न) शस्त्रों वा खड्गों के समान (विश्वहा) सदा (आदर्दिरासः) सब ओर शत्रुओं को छिन्न भिन्न करने वाले हों। वे (क्रीडयः शिशूलाः न) खेलने वाले बच्चों के समान (सुमातरः) उत्तम माता वाले, उत्तम ज्ञानवान् पुरुषों के अधीन हों। वे (यामन्) प्रयाण या शत्रु पर चढ़ाई करते हुए (त्विषा) कान्ति तेज और प्रभाव में (महा-ग्रामः न) बड़े जनसंघ के समान भयकारक हों। (२) उसी प्रकार शरीर में प्राणगण, देह को सञ्चालित करने से ‘सूरि’। ‘सिन्धु’ अर्थात् आत्मारूप माता के पुत्र हैं। देह को बलपूर्वक स्थान २ पर भेद कर वे इन्द्रियों के छिद्र बनाते हैं। शब्द आदि विषयों में रमने से ‘क्रीड़ि’ हैं। चेतन आत्मा ही उनकी माता है। उनका संघ ही महाग्रामवत् देह में गति करता है।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - स्यूमरश्मिर्भार्गवः॥ मरुतो देवता॥ छन्दः– आर्ची त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ८ त्रिष्टुप्। २, ५, ६ विराड् जगती। ७ पादनिचृज्जगती॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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