ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 82/ मन्त्र 6
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तमिद्गर्भं॑ प्रथ॒मं द॑ध्र॒ आपो॒ यत्र॑ दे॒वाः स॒मग॑च्छन्त॒ विश्वे॑ । अ॒जस्य॒ नाभा॒वध्येक॒मर्पि॑तं॒ यस्मि॒न्विश्वा॑नि॒ भुव॑नानि त॒स्थुः ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । इत् । गर्भ॑म् । प्र॒थ॒मम् । द॒ध्रे॒ । आपः॑ । यत्र॑ । दे॒वाः । स॒म्ऽअग॑च्छन्त । विश्वे॑ । अ॒जस्य॑ । नाभौ॑ । अधि॑ । एक॑म् । अर्पि॑तम् । यस्मि॑न् । विश्वा॑नि । भुव॑नानि । त॒स्थुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
तमिद्गर्भं प्रथमं दध्र आपो यत्र देवाः समगच्छन्त विश्वे । अजस्य नाभावध्येकमर्पितं यस्मिन्विश्वानि भुवनानि तस्थुः ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । इत् । गर्भम् । प्रथमम् । दध्रे । आपः । यत्र । देवाः । सम्ऽअगच्छन्त । विश्वे । अजस्य । नाभौ । अधि । एकम् । अर्पितम् । यस्मिन् । विश्वानि । भुवनानि । तस्थुः ॥ १०.८२.६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 82; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 6
विषय - सर्वाश्रय प्रभु एक, अजन्मा है। वही सब प्रकृति और समस्त दिव्य लोकों और शक्तियों का आश्रय।
भावार्थ -
(तम् इत्) उस ही (गर्भम्) सबको अपने में ग्रहण करने वाले, सर्वाश्रय, सर्वधारक पुरुष को (आपः) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणु या व्यापक ‘सरि’ मय प्रकृति तत्त्व (प्रथमं) सब से प्रथम (दध्रे) धारण करते हैं। (यत्र) जिसमें वा जिस के आश्रय (विश्वे देवाः सम् अगच्छन्त) समस्त देवगण, सूर्य में रश्मियों के तुल्य, गुरु में शिष्यों के तुल्य और राजा में प्रजाओं के तुल्य संगत, एकत्र होते हैं। (अजस्य नाभौ अधि) अजन्मा, सर्वजगत् के संचालक, उस प्रभु के ‘नाभि’ अर्थात् सबको अपने में बांध लेने वाले परम सामर्थ्य में (एकम्) यह समस्त विश्व एक, समूचे रूप से (अधि अर्पितम्) आश्रित है, (यस्मिन्) जिसके आश्रय में (विश्वानि भुवनानि) समस्त भुवन, लोक और भूत, प्राणि आदि जीव सर्ग भी (तस्थुः) हैं।
अथवा—अजरूप विराट् विश्व के नाभि में एक वह प्रभुशक्ति विराजती है, जिस में सब आश्रित हैं। अज विराट का वर्णन देखो (अथर्व वेद का० ९। वर्ग ६। मं० २०॥
टिप्पणी -
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वकर्मा भौवन ऋषिः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:- १, ५, ६ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्।
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