ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 82/ मन्त्र 7
ऋषिः - विश्वकर्मा भौवनः
देवता - विश्वकर्मा
छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
न तं वि॑दाथ॒ य इ॒मा ज॒जाना॒न्यद्यु॒ष्माक॒मन्त॑रं बभूव । नी॒हा॒रेण॒ प्रावृ॑ता॒ जल्प्या॑ चासु॒तृप॑ उक्थ॒शास॑श्चरन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठन । तम् । वि॒दा॒थ॒ । यः । इ॒मा । ज॒जान॑ । अ॒न्यत् । यु॒ष्माक॑म् । अन्त॑रम् । ब॒भू॒व॒ । नी॒हा॒रेण॑ । प्रावृ॑ताः । जल्प्या॑ । च॒ । अ॒सु॒ऽतृपः॑ । उ॒क्थ॒ऽशासः॑ । च॒र॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न तं विदाथ य इमा जजानान्यद्युष्माकमन्तरं बभूव । नीहारेण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठन । तम् । विदाथ । यः । इमा । जजान । अन्यत् । युष्माकम् । अन्तरम् । बभूव । नीहारेण । प्रावृताः । जल्प्या । च । असुऽतृपः । उक्थऽशासः । चरन्ति ॥ १०.८२.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 82; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 7
विषय - व्यापक, अन्तर्यामी, अज्ञेय प्रभु।
भावार्थ -
हे मनुष्यो ! आप लोग (तं न विदाथ) उसको नहीं जानते, या क्या आप लोग उसको नहीं जानना चाहते (इमा जजान) जो इन सब लोकों को उत्पन्न करता है ? (अन्यत्) और जो (युष्माकम् अन्तरम्) तुम सब के भीतर और आत्मा से पृथक् (बभूव) विद्यमान है। लोग (नीहारेण प्रावृताः) कोहरे से घिरे हुओं के तुल्य (नीहारेण) ज्ञान, विवेक आदि को सर्वथा हर लेने वाले, घोर अज्ञान-अन्धकार से ढके हुए (असु-तृपः) केवल प्राण-ग्रहण, श्वासोच्छास, प्राण-धारण मात्र से तृप्त होने वाले और (अ-सु-तृपः) ज्ञान से खूब तृप्त वा बहुश्रुत न होकर (उक्थ-शासः) उक्थ, वेद-वचनों या शास्त्र वचनों का ही उच्चारण करने वाले होकर (चरन्ति) विचरते हैं वे केवल (जल्प्या प्रावृताः) वाणी मात्र से युक्त होकर (चरन्ति) विचरते हैं। वे ब्रह्मतत्त्व के बारे में केवल बातें ही बहुत कह लेते हैं उनको आत्मा का साक्षात्कार नहीं है। इति सप्तदशो वर्गः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - विश्वकर्मा भौवन ऋषिः॥ विश्वकर्मा देवता॥ छन्द:- १, ५, ६ त्रिष्टुप्। २, ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ३ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्।
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