ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 84/ मन्त्र 2
अ॒ग्निरि॑व मन्यो त्विषि॒तः स॑हस्व सेना॒नीर्न॑: सहुरे हू॒त ए॑धि । ह॒त्वाय॒ शत्रू॒न्वि भ॑जस्व॒ वेद॒ ओजो॒ मिमा॑नो॒ वि मृधो॑ नुदस्व ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निःऽइ॑व । म॒न्यो॒ इति॑ । त्वि॒षि॒तः । स॒ह॒स्व॒ । से॒ना॒ऽनीः । नः॒ । स॒हु॒रे॒ । हू॒तः । ए॒धि॒ । ह॒त्वाय॑ । शत्रू॑न् । वि । भ॒ज॒स्व॒ । वेदः॑ । ओजः॑ । मिमा॑नः । वि । मृधः॑ । नु॒द॒स्व॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्व सेनानीर्न: सहुरे हूत एधि । हत्वाय शत्रून्वि भजस्व वेद ओजो मिमानो वि मृधो नुदस्व ॥
स्वर रहित पद पाठअग्निःऽइव । मन्यो इति । त्विषितः । सहस्व । सेनाऽनीः । नः । सहुरे । हूतः । एधि । हत्वाय । शत्रून् । वि । भजस्व । वेदः । ओजः । मिमानः । वि । मृधः । नुदस्व ॥ १०.८४.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 84; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 3; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
विषय - सेनापति का कार्य सैन्यसंञ्चालन शत्रु सेनाओं का दूरीकरण।
भावार्थ -
हे (मन्यो) तेजस्विन् ! तू (अग्निः इव) अग्नि के समान (त्विषितः) कान्तियुक्त होकर (सहस्व) सब को पराजित कर। हे (सहुरे) सहनशील ! तू (हूतः) आदर से बुलाया जाकर (नः सेनानीः एधि) हमारा सेनानायक हो। (शत्रून् हत्वाय) शत्रुओं का नाश करके (वेदः विभजस्व) विजय से प्राप्त धन को विभक्त कर। (ओजः मिमानः) बल-पराक्रम करता हुआ (मृधः वि नुदस्व) हिंसाकारी शत्रुओं और शत्रु सेनाओं को विपरीत दिशा में कर और अपनी (मृधः) सेनाओं को (वि-नुदस्व) विविध प्रकार से प्रेरित कर।
अध्यात्म में—‘इन’ अर्थात् स्वामी, आत्मा सहित विद्यमान समस्त इन्द्रियगण ‘सेना’ है, उसको सन्मार्ग में ले जाने वाला सेनानी है। वा स्वामी के चाहने वाले प्रजाजन सेना, उनका नेता प्रभु हो। वह हमारे अन्तःशत्रु और हमें काटने वाले रोग आदि को नाश कर, सुख प्रदान करे। हमें बल देता हुआ हमारी (मृधः) विपत्तियों को दूर करे।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - मन्युस्तापस ऋषिः॥ मन्युर्देवता॥ छन्दः- १, ३ त्रिष्टुप्। २ भुरिक् त्रिष्टुप्। ४, ५ पादनिचृज्जगती। ६ आर्ची स्वराड़ जगती। ७ विराड़ जगती। सप्तर्चं सूक्तम्॥
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