ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 88/ मन्त्र 2
ऋषिः - मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा
देवता - सूर्यवैश्वानरौ
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
गी॒र्णं भुव॑नं॒ तम॒साप॑गूळ्हमा॒विः स्व॑रभवज्जा॒ते अ॒ग्नौ । तस्य॑ दे॒वाः पृ॑थि॒वी द्यौरु॒तापोऽर॑णय॒न्नोष॑धीः स॒ख्ये अ॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठगी॒र्णम् । भुव॑नम् । तम॑सा । अप॑ऽगूळ्हम् । आ॒विः । स्वः॑ । अ॒भ॒व॒त् । जा॒ते । अ॒ग्नौ । तस्य॑ । दे॒वाः । पृ॒थि॒वी । द्यौः । उ॒त । आपः॑ । अर॑णयन् । ओष॑धीः । स॒ख्ये । अ॒स्य॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
गीर्णं भुवनं तमसापगूळ्हमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ । तस्य देवाः पृथिवी द्यौरुतापोऽरणयन्नोषधीः सख्ये अस्य ॥
स्वर रहित पद पाठगीर्णम् । भुवनम् । तमसा । अपऽगूळ्हम् । आविः । स्वः । अभवत् । जाते । अग्नौ । तस्य । देवाः । पृथिवी । द्यौः । उत । आपः । अरणयन् । ओषधीः । सख्ये । अस्य ॥ १०.८८.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 88; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
विषय - दिन और रात्रि के अन्धकार के तुल्य तमस् या अव्यक्त जगत् के लय होने का वर्णन। जगत् सर्जक और संहारक प्रभु के आश्रित समस्त लोक।
भावार्थ -
(तमसा) तम से (भुवनं) यह समस्त संसार (गीर्णम्) अपने भीतर लील लिया जाता है तब वह (अप-गूढम्) अन्धकार में कहीं छुप जाता है। और (जाते अग्नौ) अग्निमय सूर्य के प्रकट होने पर (स्वः) वह सब प्रकट रूप में (आविः अभवत्) स्पष्ट हो जाता है। (२) इसी प्रकार यह समस्त जगत् ‘तमस’, अव्यक्त प्रधान में लीन हो जाता है। और फिर अग्नि अर्थात् सर्वाग्रणी सत्त्वमय, तेजोमय हिरण्यगर्भ के प्रकट होने पर व्यक्त हो जाता है।
टिप्पणी -
सहस्रयुगपर्यन्तमहर्यद् ब्रह्मणो विदुः।
रात्रिं युगसहस्रान्तां तेऽहोरात्रविदो जनाः॥
अव्यक्ताद् व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥
भूतग्रामः स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते
राज्यागमे ऽवशः पार्थं प्रभवन्त्यहरागमे ॥ गीता ॥
ब्रह्मा का एक दिन और एक रात्रि सहस्र २ युगों के होते हैं दिन के आने पर अव्यक्त से सब व्यक्त पदार्थ उत्पन्न होते हैं, रात्रि के आने पर सब फिर अव्यक्त में लीन हो जाते हैं। समस्त भूत-समूह,प्राणि-संसार रात्रि के आने पर उसी में लीन होता है, और दिन के आने पर प्रकट होता है। यह घटना दिन रात्रि के दृष्टान्त से ही वर्णन की जाती है। (तस्य) उस जगत् के प्रभव और प्रलय करने वाले (अस्य) इस महान् ‘अग्नि’ रूप स्वप्रकाश प्रभु के (सख्ये) मित्रभाव में ही (देवाः) समस्त देव, (पृथिवी, द्यौः) पृथिवी और आकाश (उत आपः ओषधीः) और समस्त लोक और औषधियां वा तेज-धारक सूर्य आदि (अरणयन्) रमण करते हैं, प्रसन्न होते हैं।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः मूर्धन्वानाङ्गिरसो वामदेव्यो वा॥ देवता—सूर्यवैश्वानरो॥ छन्दः—१–४, ७, १५, १९ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ८ त्रिष्टुप्। ६, ९–१४, १६, १७ निचृत् त्रिष्टुप्। १८ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। एकोनविंशत्यृचं सूक्तम्।
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