ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
सं जा॑गृ॒वद्भि॒र्जर॑माण इध्यते॒ दमे॒ दमू॑ना इ॒षय॑न्नि॒ळस्प॒दे । विश्व॑स्य॒ होता॑ ह॒विषो॒ वरे॑ण्यो वि॒भुर्वि॒भावा॑ सु॒षखा॑ सखीय॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । जा॒गृ॒वत्ऽभिः । जर॑माणः । इ॒द्य॒ते॒ । दमे॑ । दमू॑नाः । इ॒षय॑न् । इ॒ळः । प॒दे । विश्व॑स्य । होता॑ । ह॒विषः॑ । वरे॑ण्यः । वि॒ऽभुः । वि॒भाऽवा॑ । सु॒ऽसखा॑ । स॒खि॒ऽय॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं जागृवद्भिर्जरमाण इध्यते दमे दमूना इषयन्निळस्पदे । विश्वस्य होता हविषो वरेण्यो विभुर्विभावा सुषखा सखीयते ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । जागृवत्ऽभिः । जरमाणः । इद्यते । दमे । दमूनाः । इषयन् । इळः । पदे । विश्वस्य । होता । हविषः । वरेण्यः । विऽभुः । विभाऽवा । सुऽसखा । सखिऽयते ॥ १०.९१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 91; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
विषय - अग्निः। अग्निवत् परमेश्वर और आत्मा का वर्णन।
भावार्थ -
(जागृवद्भिः) जागरण करने वाले, नित्य सावधान, ज्ञानवान्, अप्रमादी, पुरुषों द्वारा (जरमाणः) स्तुति किया जाता हुआ, (दमे),गृह में (दमूनाः) अग्नि के तुल्य, (दमे) समस्त जगत् के दमन, सम्यक् प्रकार से संचालन कार्य में (दमूनाः) दान्त चित्त वाला, (इड़ः पदे इषयन्) भूमि के प्राप्त करने में सेनाओं को संञ्चालित करने वाले राजा के तुल्य (इडः पदे इषयन) वाणी के मार्ग में समस्त जनों को प्रेरित करता हुआ, (विश्वस्य हविषः होता) समस्त हवि के ग्रहण करने वाले यज्ञ-अग्नि के तुल्य, (हविषः विश्वस्य होता) हविवत् समस्त जगत् को अपने भीतर अन्नवत् लीलने हारा, समस्त जगत् का अत्ता, भोक्ता, (वरेण्यः) सब से वरण करने योग्य, (विभुः) व्यापक, विशेष रूप से सर्वत्र सत्तावान्, (वि-भावा) विशेष कान्ति से सम्पन्न, (सखीयते सुसखा) सखाभाव से रहने वाले के हितार्थ उत्तम मित्र वह प्रभु है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिः अरुणो वैतहव्यः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:- १, ३, ६ निचृज्जगती। २, ४, ५, ९, १०, १३ विराड् जगती। ८, ११ पादनिचृज्जगती। १२, १४ जगती। १५ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूकम्॥
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