ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 16
य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन् । ते ह॒ नाकं॑ महि॒मान॑: सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः ॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञेन॑ । य॒ज्ञम् । अ॒य॒ज॒न्त॒ । दे॒वाः । तानि॑ । धर्मा॑णि । प्र॒थ॒मानि॑ । आ॒स॒न् । ते । ह॒ । नाक॑म् । म॒हि॒मानः॑ । स॒च॒न्त॒ । यत्र॑ । पूर्वे॑ । सा॒ध्याः । सन्ति॑ । दे॒वाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन् । ते ह नाकं महिमान: सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः ॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञेन । यज्ञम् । अयजन्त । देवाः । तानि । धर्माणि । प्रथमानि । आसन् । ते । ह । नाकम् । महिमानः । सचन्त । यत्र । पूर्वे । साध्याः । सन्ति । देवाः ॥ १०.९०.१६
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 16
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
विषय - यज्ञ द्वारा प्रभु की उपासना।
भावार्थ -
(यज्ञेन यज्ञम् अयजन्त) यज्ञ से यज्ञ की संगति करते हैं और यज्ञ, आत्मा से ही यज्ञ, सर्वोपास्य प्रभु की उपासना करते हैं क्योंकि (तानि) वे ही (धर्माणि) संसार को धारण करने वाले अनेक बल (प्रथमानि) सर्वश्रेष्ठ, सब के मूलकारण रूप से (आसन्) होते हैं। (ते ह) और वे ही निश्चय से (महिमानः) महान् सामर्थ्य वाले होकर (नाकं सचन्त) परम सुख, आनन्दमय उस प्रभु को सेवते, और प्राप्त करते हैं (यत्र) जिस में (पूर्वे) पूर्व के, ज्ञान से पूर्ण, (साध्याः) साधना से सम्पन्न और अनेक साधनों वाले (देवाः) ज्ञान से प्रकाशित, सब को ज्ञान देने वाले, विद्वान् जन (सन्ति) रहते हैं। वे प्रभु के उपासक, मुक्त होकर मोक्ष को भोगते हैं। इत्येकोनविंशो वर्गः ॥ इति सप्तमोऽनुवाकः॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥
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