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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 15
    ऋषिः - नारायणः देवता - पुरुषः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    स॒प्तास्या॑सन्परि॒धय॒स्त्रिः स॒प्त स॒मिध॑: कृ॒ताः । दे॒वा यद्य॒ज्ञं त॑न्वा॒ना अब॑ध्न॒न्पुरु॑षं प॒शुम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒प्त । अ॒स्य॒ । आ॒स॒न् । प॒रि॒ऽधयः॑ । त्रिः । स॒प्त । स॒म्ऽइधः॑ । कृ॒ताः । दे॒वाः । यत् । य॒ज्ञम् । त॒न्वा॒नाः । अब॑ध्नन् । पुरु॑षम् । प॒शुम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सप्तास्यासन्परिधयस्त्रिः सप्त समिध: कृताः । देवा यद्यज्ञं तन्वाना अबध्नन्पुरुषं पशुम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सप्त । अस्य । आसन् । परिऽधयः । त्रिः । सप्त । सम्ऽइधः । कृताः । देवाः । यत् । यज्ञम् । तन्वानाः । अबध्नन् । पुरुषम् । पशुम् ॥ १०.९०.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 5

    भावार्थ -
    देवयज्ञ का वर्णन करते हैं। (यत्) जो (यज्ञं तन्वानाः) यज्ञ, परस्पर संगति करते हुए (देवाः) देव, इन्द्रियें वा पञ्चभूतादि, (पशुम्) द्रष्टा, चेतन (पुरुषं) पुरुष को (अबध्नन्) बांध लेते हैं। उस समय (अस्य) इस आत्मा चेतन की (सप्त परिधयः) सात परिधियें, तथा (त्रिः सप्त समिधः कृताः) २१ समिधाएं बनी हैं। यह अध्यात्म यज्ञ का स्वरूप है, जिससे सूक्ष्म पञ्च तन्मत्राएं ही इन्द्रिय रूप देव होकर परस्पर संगति और शक्ति के दान-आदान पूर्वक यज्ञ रच रहे हैं। इसी प्रकार विशाल ब्रह्माण्ड में भी विद्वानों ने एक महान् यज्ञ की रचना वा कल्पना की है। उसमें उस परम प्रभु सर्वद्रष्टा पुरुष को योगी, ध्यानी, जन अन्तःकरण में ध्यान योग से बांधते हैं। अथवा पञ्चभूत रूप देव महत् अंहकारादि विकृति ये उस प्रभु व्यापक पुरुष को पशु अर्थात् सर्वोपरि द्रष्टा साक्षी रूप से बांधते, अर्थात् अपने ऊपर सर्पोपरि शासक प्रभु को अध्यक्ष रूप से व्यवस्थित वा नियमबद्ध मानते हैं। इस प्रकार यद्यपि परमेश्वर जीव के समान बद्ध नहीं तो भी धर्मात्मा राजा के तुल्य जगत् को नियमों में बांधता हुआ स्वयं भी उन नियमों में बद्ध होता है। राजा यदि प्रजावर्ग को बांधता है तो प्रकारान्तर से प्रजावर्ग राजा को भी व्यवस्थित करते हैं क्योंकि यह व्यवस्था परस्परापेक्षित है। उस दशा में इस ब्रह्माण्ड की सात परिधियां हैं। गोल चीज़ के चारों ओर एक सूत से नाप के जितना परिमाण होता है उसको ‘परिधि’ कहते हैं सो जितने ब्रह्माण्ड में लोक हैं ईश्वर ने उन एक २ के ऊपर सात २ आवरण बनाये हैं। एक समुद्र, दूसरा त्रसरेणु, तीसरा मेघ मण्डल अर्थात् वहां का वायु चौथा वृष्टि जल, उसके ऊपर पांचवाँ वायु, छठा अत्यन्त सूक्ष्म धनंजय वायु, और सातवाँ सूत्रात्मा वायु जो बहुत सूक्ष्म है। यह सात आवरण एक दूसरे के ऊपर विद्यमान हैं (दया०)। इस समस्त ब्रह्माण्ड के घटक २१ पदार्थ २१ समिधा के तुल्य हैं। प्रकृति, महान्, बुद्धि आदि अन्तःकरण और जीव, यह एक सामग्री परम सूक्ष्म रूप में हैं। इनके दश इन्द्रियगण, श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, नासिका, वाणी, दो चरण, दो हस्त, गुदा और उपस्थ और पांच तन्मात्राएं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध और पांच भूत पृथिवी, आपः, तेज, वायु और आकाश। ये सब मिलकर २१ सामग्रियां ब्रह्माण्ड महायज्ञ की २१ समिधाएं हैं। इसके अवयव रूप से अनेक तत्व हैं। इन सब में देव, विद्वान्गण परमेश्वर को ही सर्वसंचालक, सर्वघटक रूप से ध्यान करते और उसी को बांधते अर्थात् उसी की व्यवस्था नियत करते हैं।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥

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