ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 90/ मन्त्र 14
नाभ्या॑ आसीद॒न्तरि॑क्षं शी॒र्ष्णो द्यौः सम॑वर्तत । प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिश॒: श्रोत्रा॒त्तथा॑ लो॒काँ अ॑कल्पयन् ॥
स्वर सहित पद पाठनाभ्याः॑ । आ॒सी॒त् । अ॒न्तरि॑क्षम् । शी॒र्ष्णः । द्यौः । सम् । अ॒व॒र्त॒त॒ । प॒त्ऽभ्याम् । भूमिः॑ । दिशः॑ । श्रोत्रा॑त् । तथा॑ । लो॒कान् । अ॒क॒ल्प॒य॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
नाभ्या आसीदन्तरिक्षं शीर्ष्णो द्यौः समवर्तत । पद्भ्यां भूमिर्दिश: श्रोत्रात्तथा लोकाँ अकल्पयन् ॥
स्वर रहित पद पाठनाभ्याः । आसीत् । अन्तरिक्षम् । शीर्ष्णः । द्यौः । सम् । अवर्तत । पत्ऽभ्याम् । भूमिः । दिशः । श्रोत्रात् । तथा । लोकान् । अकल्पयन् ॥ १०.९०.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 90; मन्त्र » 14
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
विषय - विराट् पुरुष की अंग कल्पना। लोक-सम्मित पुरुष। पुरुष सम्मित लोक, पुरुष का जगन्मय देह।
भावार्थ -
(नाभ्याः अन्तरिक्षम् आसीत्) नाभि से अन्तरिक्ष को कल्पित किया है। (शीर्ष्णः) सिर भाग से (द्यौः सम् अवर्त्तत) विशाल आकाश कल्पित हुआ, (पद्भ्यां भूमिः) पैरों से भूमि और (श्रोत्रात् दिशः) श्रोत्र अर्थात् कानों से दिशाएं (तथा लोकान् अकल्पयन्) और इस प्रकार से समस्त लोकों की कल्पना की है।
टिप्पणी -
यहां भी पूर्व मन्त्र के समान ही विराट् जगन्मय देह के अन्तरिक्ष, द्यौ, भूमि, दिशा और अन्य लोकों के तुल्य नाभि, शिर, पैर, श्रोत्र इन्द्रिय तथा अन्यान्य अंगों की कल्पना जाननी चाहिये। इसी प्रकार जगत् के इन २ अंगों को देख कर परमेश्वर, महान् आत्मा की उन २ अनेक शक्तियों वा सामर्थों को ही उनका मूल कारण वा आश्रय जानना चाहिये। लोक-संमित पुरुष और पुरुष सम्मित लोकों का विस्तृत वर्णन देखो (चरकसंहिता—शारीरस्थान शरीरविषयाध्याय० ५ )
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर -
ऋषिर्नारायणः॥ पुरुषो देवता॥ छन्दः–१–३, ७, १०, १२, निचृदनुष्टुप्। ४–६, ९, १४, १५ अनुष्टुप्। ८, ११ विराडनुष्टुप्। १६ विराट् त्रिष्टुप्॥
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