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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 98/ मन्त्र 3
    ऋषिः - देवापिरार्ष्टिषेणः देवता - देवाः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अ॒स्मे धे॑हि द्यु॒मतीं॒ वाच॑मा॒सन्बृह॑स्पते अनमी॒वामि॑षि॒राम् । यया॑ वृ॒ष्टिं शंत॑नवे॒ वना॑व दि॒वो द्र॒प्सो मधु॑माँ॒ आ वि॑वेश ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒स्मे इति॑ । धे॒हि॒ । द्यु॒ऽमती॑म् । वाच॑म् । आ॒सन् । बृह॑स्पते । अ॒न॒मी॒वाम् । इ॒षि॒राम् । यया॑ । वृ॒ष्टिम् । शम्ऽत॑नवे । वना॑व । दि॒वः । द्र॒प्सः । मधु॑ऽमान् । आ । वि॒वे॒श॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अस्मे धेहि द्युमतीं वाचमासन्बृहस्पते अनमीवामिषिराम् । यया वृष्टिं शंतनवे वनाव दिवो द्रप्सो मधुमाँ आ विवेश ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अस्मे इति । धेहि । द्युऽमतीम् । वाचम् । आसन् । बृहस्पते । अनमीवाम् । इषिराम् । यया । वृष्टिम् । शम्ऽतनवे । वनाव । दिवः । द्रप्सः । मधुऽमान् । आ । विवेश ॥ १०.९८.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 98; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    (बृहस्पते) ब्रह्माण्ड के वा वाणी के पालक ! प्रभो ! (अस्मे आसन् द्युमतीं वाचम् धेहि) हमें हमारे मुख में ज्ञान-प्रकाश वाली ऐसी वाणी का प्रदान कर जो (अनमीवाम्) समस्त प्रकार के दोषों से रहित और अन्यों को पीड़ा न देने वाली, (इषिराम) व्यापक, एवं इच्छा शक्ति को सन्मार्ग में चलाने वाली हो। हे प्रभो ! (यया) जिससे हम दोनों (शं-तनवे) शान्ति के विस्तार वा जीव के देह की शान्ति के लिये (वनाव) एक दूसरे को प्राप्त हों। (दिवः) प्रकाशमय, तुम से (मधुमान् द्रप्सः) मधुर, सुखकारी रस (आ विवेश) भीतर अन्तःकरण में प्राप्त हो। (२) मेघ-सूर्य पक्ष में—हे (बृहस्पते) बड़ी शक्ति के पालक सूर्य ! तू हमें द्युमती ‘वाक्’ विद्युत् को प्रदान कर, अर्थात् प्रकाशयुक्त अन्न परिपाक करने वाले ताप का प्रदान कर। जो (इषिरा) अन्न जल देने वाली और (अनमीवा) रोग नाशक हो। विश्व के प्राणी देहधारियों के शान्ति सुख-कल्याण के लिये (वृष्टिं वनाव) हम स्त्री पुरुष व राजा प्रजा जल वृष्टि को प्राप्त करें। (दिवः) आकाश से (मधुमान्) जल और अन्न से युक्त (द्रप्सः) रस भूमि को प्राप्त हो।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - ऋषिर्देवापिरार्ष्टिषेणः। देवा देवताः॥ छन्द:- १, ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। २, ६, ८, ११, १२ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४, १० विराट् त्रिष्टुप्॥ द्वादशर्चं सूक्तम्॥

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