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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 33 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 33/ मन्त्र 13
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - रुद्रः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    या वो॑ भेष॒जा म॑रुतः॒ शुची॑नि॒ या शंत॑मा वृषणो॒ या म॑यो॒भु। यानि॒ मनु॒रवृ॑णीता पि॒ता न॒स्ता शं च॒ योश्च॑ रु॒द्रस्य॑ वश्मि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    या । वः॒ । भे॒ष॒जा । म॒रु॒तः॒ । शुची॑नि । या । शम्ऽत॑मा । वृ॒ष॒णः॒ । या । म॒यः॒ऽभु । यानि॑ । मनुः॑ । अवृ॑णीत । पि॒ता । नः॒ । ता । शम् । च॒ । योः । च॒ । रु॒द्रस्य॑ । व॒श्मि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या वो भेषजा मरुतः शुचीनि या शंतमा वृषणो या मयोभु। यानि मनुरवृणीता पिता नस्ता शं च योश्च रुद्रस्य वश्मि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    या। वः। भेषजा। मरुतः। शुचीनि। या। शम्ऽतमा। वृषणः। या। मयःऽभु। यानि। मनुः। अवृणीत। पिता। नः। ता। शम्। च। योः। च। रुद्रस्य। वश्मि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 33; मन्त्र » 13
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 18; मन्त्र » 3

    भावार्थ -
    हे ( वृष्णः ) सुखों की वृष्टि करने वाले प्राणों और वायुओं के समान ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! ( या ) जो (भेषजा) रोग निवारक ओषधियें ( शुचीनि ) अतिशुद्ध, पवित्र, ( या शन्तमा ) अति अधिक रोगों को शमन करने वाली, शान्तिदायक, ( या मयोभु ) सुख कल्याण जनक हैं ( यानि ) जिनको ( नः पिता ) हमारा परिपालक वैद्य आदि जन ( मनुः ) मननशील, ज्ञानवान् होकर ( अवृणीत ) सबसे उत्तम ग्राह्य जानकर लेता है ( ता ) वे ( नः ) हमारे और ( वः ) तुम्हारे लिये ( शं च ) शान्तिकर और ( रुद्रस्य ) रुलाने वाले ( योः च ) रोग के दूर करने वाली हों । ( ता वश्मि ) उनको ही मैं भी प्राप्त करना चाहूं । अथवा, ( रुद्रस्य ) दुःख हारी पुरुष के पास से मैं उनको प्राप्त करूं ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ रुद्रो देवता ॥ छन्दः– १, ५, ९, १३, १४, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५, ६, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ४,८ त्रिष्टुप् । २, ७ पङ्क्तिः । १२, भुरिक् पङ्क्तिः ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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