ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अपान्नपात्
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उपे॑मसृक्षि वाज॒युर्व॑च॒स्यां चनो॑ दधीत ना॒द्यो गिरो॑ मे। अ॒पां नपा॑दाशु॒हेमा॑ कु॒वित्स सु॒पेश॑सस्करति॒ जोषि॑ष॒द्धि॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । ई॒म् । अ॒सृ॒क्षि॒ । वा॒ज॒ऽयुः । व॒च॒स्याम् । चनः॑ । द॒धी॒त॒ । ना॒द्यः । गिरः॑ । मे॒ । अ॒पाम् । नपा॑त् । आ॒शु॒ऽहेमा॑ । कु॒वित् । सः । सु॒ऽपेश॑सः । क॒र॒ति॒ । जोषि॑षत् । हि ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपेमसृक्षि वाजयुर्वचस्यां चनो दधीत नाद्यो गिरो मे। अपां नपादाशुहेमा कुवित्स सुपेशसस्करति जोषिषद्धि॥
स्वर रहित पद पाठउप। ईम्। असृक्षि। वाजऽयुः। वचस्याम्। चनः। दधीत। नाद्यः। गिरः। मे। अपाम्। नपात्। आशुऽहेमा। कुवित्। सः। सुऽपेशसः। करति। जोषिषत्। हि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
विषय - अन्नार्थी के समान ज्ञानार्थी को उपदेश । अपांनपात् का वर्णन ।
भावार्थ -
( वाजयुः ) जो पुरुष अन्न को प्राप्त करना चाहता है वह जिस प्रकार ( वचस्याम् ईम् च उप असृक्षि ) जल को उत्पन्न और प्राप्त करने की क्रियाको करता और ( ईम् ) और जलको ( उप असर्जि ) उपाय द्वारा प्राप्त करता है और वह पुरुष (नाद्यः) नदी के जल को वश करके ही ( चनः-दधीत ) अन्न को पुष्ट करता और प्राप्त करता है । उसी प्रकार ( वाजयुः) ज्ञान और बल की इच्छा करने वाला पुरुष ( वचस्यां ) वचन, वेदवाणी, और गुरु प्रवचन के योग्य अध्ययन अध्यापन और ऊहापोह आदि क्रिया का ( उप असृक्षि ) अभ्यास करे । और वह ( नाद्यः ) उपदेष्टा करने वाले विद्या सम्पन्न गुरु का प्रिय हितैषी होकर ( मे ) मुझ उपदेशक, गुरु या परमेश्वर की ( गिरः ) वेद वाणियों के ( चनः ) उपदेश को ( दधीत ) धारण करे । ( अपां नपात् ) जिस प्रकार अन्नार्थी कृषक जलों को नहीं गिरने देता हुआ ( आशुहेमा ) शीघ्र क्रिया करता हुआ ( कुवित् ) बहुत वारों में ( सुपेशसः करत् ) अन्नादि की कृषि को और उत्तम बना लेता है, ( जोषिषत् हि ) उसका सेवन भी कर लेता है। उसी प्रकार ( अपां नपात् ) अपने प्राणों और वीर्यों को न पतित होने देने वाला वीर्यरक्षक ब्रह्मचारी होकर (आशुहेमा) शीघ्र ही ज्ञान और बल की वृद्धि करता हुआ ( कुवित् ) बहुत वारों में ( सुपेशसः ) उत्तम ज्ञान, शारीरीक बल ( करति ) प्राप्त करता है और ( जोषिषत् हि ) उसका वह उत्तम रीति से सेवन भी करता है।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
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