ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 15
यया॑ र॒ध्रं पा॒रय॒थात्यंहो॒ यया॑ नि॒दो मु॒ञ्चथ॑ वन्दि॒तार॑म्। अ॒र्वाची॒ सा म॑रुतो॒ या व॑ ऊ॒तिरो षु वा॒श्रेव॑ सुम॒तिर्जि॑गातु॥
स्वर सहित पद पाठयया॑ । र॒ध्रम् । पा॒रय॑थ । अति॑ । अंहः॑ । यया॑ । नि॒दः । मु॒ञ्चथ॑ । व॒न्दि॒तार॑म् । अ॒र्वाची॑ । सा । म॒रु॒तः॒ । या । वः॒ । ऊ॒तिः । ओ इति॑ । सु । वा॒श्राऽइ॑व । सु॒ऽम॒तिः । जि॒गा॒तु॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यया रध्रं पारयथात्यंहो यया निदो मुञ्चथ वन्दितारम्। अर्वाची सा मरुतो या व ऊतिरो षु वाश्रेव सुमतिर्जिगातु॥
स्वर रहित पद पाठयया। रध्रम्। पारयथ। अति। अंहः। यया। निदः। मुञ्चथ। वन्दितारम्। अर्वाची। सा। मरुतः। या। वः। ऊतिः। ओ इति। सु। वाश्राऽइव। सुऽमतिः। जिगातु॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 15
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
विषय - मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।
भावार्थ -
हे ( मरुतः ) हे विद्वान् लोगो ! ( या वः ऊतिः ) जो आप लोगों की रक्षणशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति और सबको तृप्त और प्रसन्न करने की शक्ति है ( यया ) जिससे ( रघ्रं ) साधक और निर्धन आराधक या उपासक तक को भी ( अंहः अति पारयथ ) पाप से पार कर देने में समर्थ होते हो और ( यया ) जिससे ( निदः ) समस्त निन्दनीय कार्यों को ( मुञ्चथ ) दूर करते या ( निदः ) निन्दक जनसे ( वन्दितारं ) स्तुतिकारी, प्रार्थी पुरुष को ( मुञ्चथ ) मुक्त करते हो, अर्थात् उसको निन्दकों के जाल में नहीं पड़ने देते ( सा ) वह आप लोगों की धन, ज्ञान, और मन्त्रमयी पालनकारिणी शक्ति ( अर्वाची ) अश्वादि सैन्यों को प्राप्त होकर और ( सुमतिः ) उत्तम ज्ञानमयी प्रज्ञा ( वाश्रा इव ) उत्तम वाणी या बछड़े के प्रति हंभारती गौ के समान प्रेमवती होकर ( सु ओ जिगातु ) हमें भली प्रकार सभी कार्यों में प्राप्त हो ! इत्येकविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
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