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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 15
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    यया॑ र॒ध्रं पा॒रय॒थात्यंहो॒ यया॑ नि॒दो मु॒ञ्चथ॑ वन्दि॒तार॑म्। अ॒र्वाची॒ सा म॑रुतो॒ या व॑ ऊ॒तिरो षु वा॒श्रेव॑ सुम॒तिर्जि॑गातु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यया॑ । र॒ध्रम् । पा॒रय॑थ । अति॑ । अंहः॑ । यया॑ । नि॒दः । मु॒ञ्चथ॑ । व॒न्दि॒तार॑म् । अ॒र्वाची॑ । सा । म॒रु॒तः॒ । या । वः॒ । ऊ॒तिः । ओ इति॑ । सु । वा॒श्राऽइ॑व । सु॒ऽम॒तिः । जि॒गा॒तु॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यया रध्रं पारयथात्यंहो यया निदो मुञ्चथ वन्दितारम्। अर्वाची सा मरुतो या व ऊतिरो षु वाश्रेव सुमतिर्जिगातु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यया। रध्रम्। पारयथ। अति। अंहः। यया। निदः। मुञ्चथ। वन्दितारम्। अर्वाची। सा। मरुतः। या। वः। ऊतिः। ओ इति। सु। वाश्राऽइव। सुऽमतिः। जिगातु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मरुतो योतिः सुमतिरो वो वाश्रेव सुजिगातु यया रध्रमति पारयथांहो निवारयथ यया निदो मुञ्चथ साऽर्वाची वन्दितारं प्राप्नोतु ॥१५॥

    पदार्थः

    (यया) क्रियया (रध्रम्) संराधनम् (पारयथ) (अति) (अंहः) अपराधम् (यया) (निदः) निन्दकान् (मुञ्चथ) (वन्दितारम्) स्तावकम् (अर्वाची) याऽर्वणोऽश्वानञ्चति सा (सा) (मरुतः) (या) (वः) युष्मान् (ऊतिः) रक्षा (ओ) प्रेरणेषु (सु) (वाश्रेव) कमनीय इव (सुमतिः) सुष्ठुप्रज्ञा (जिगातु) प्रशंसतु ॥१५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्या यया क्रिययाऽधर्मनिन्दकत्यागो धर्मप्रशंसितग्रहणं रक्षा बुद्धिवर्द्धनं स्यात्तां क्रियां सततं कुर्वन्तु सदा निन्दावर्जनं स्तुतिस्वीकरणं कुर्युरिति ॥१५॥ अत्र विद्वद्वायुगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेद्यम् ॥ इति चतुस्त्रिंशं सूक्तमेकविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (मरुतः) मरणधर्मा मनुष्यो ! (या) जो (ऊतिः) रक्षा (सुमतिः) और सुन्दर बुद्धि (ओ) प्रेरणाओं में (वः) तुम लोगों की (वाश्रेव) मनोहर के समान (सुजिगातु) प्रशंसा करें वा (यया) जिससे (रध्रम्) अच्छे प्रकार की सिद्धि को (अतिपारयथ) अतीव पार पहुँचाओ और (अंहः) अपराध को निवृत्त करो वा (यया) जिससे (निदः) निन्दाओं को (मुञ्चथ) मोचो अर्थात् छोड़ो (सा) वह (अर्वाची) घोड़ों को प्राप्त होनेवाली कोई क्रिया (वन्दितारम्) वन्दना करनेवाले को प्राप्त हो ॥१५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्य जिस क्रिया से अधर्म और निन्दा करनेवाले का त्याग और धर्म वा प्रशंसा करनेवाले का ग्रहण रक्षा बुद्धि की वृद्धि हो, उस क्रिया को निरन्तर करें अर्थात् सदा निन्दा का त्याग और स्तुति का स्वीकार करें ॥१५॥ इस सूक्त में विद्वान् और पवन के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये॥ यह चौतीसवाँ सूक्त और इक्कीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    पाप व निन्दा से दूर, सुमति के समीप

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = प्राणो ! (यया) [ऊत्या] = जिस रक्षण से आप (रध्रम्) = आराधना करनेवाले साधक को (अंहः अतिपारयथ) = कुटिलता व पाप से पार करते हो। और (यया) = जिस रक्षण से (वन्दितारम्) = स्तोता को (निदः) = निन्दा से (मुञ्चथ) = मुक्त करते हो, (सः) = वह (वः) = आपका (ऊतिः) = रक्षण (अर्वाची:) = अस्मदभिमुख हो- हमें प्राप्त हो । प्राणसाधना से मनुष्य कुटिलता व पाप से ऊपर उठता है और कभी स्तुति-निन्दा में फंसता नहीं। प्रभु का स्तवन करते हुए वह अपने कर्त्तव्य कर्मों में व्यापृत रहता है। २. हे प्राणो ! (वाश्रा इव) = जैसे रंभाती हुई गौ बछड़े को प्राप्त होती है, इसी प्रकार (सुमतिः) = उत्तम बुद्धि (ओ सुजिगातु) = हमें अच्छी प्रकार सर्वथा प्राप्त हो । इस सुमति से सुविचार व सदाचारवाले बनकर हम जीवन को सुन्दर बनायें और अन्ततः उस प्रभु को प्राप्त होनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना से पाप दूर होते हैं और मनुष्य स्तुति-निन्दा से ऊपर उठ जाता है। यह प्राणसाधना सुमति को देनेवाली है । इस मरुत् सूक्त में अध्यात्म में प्राणों का महत्त्व स्पष्ट किया गया है और आधिभौतिक क्षेत्र में राष्ट्ररक्षक पुरुषों के कर्त्तव्यों का प्रतिपादन हुआ है। अध्यात्म में 'मरुत्' प्राण हैं, आधिभौतिक क्षेत्र में राष्ट्ररक्षक पुरुष। आधिदैविक क्षेत्र में मरुतों का–वायुओं का यहाँ उल्लेख नहीं हुआ। प्राणसाधना से मनुष्य ऊर्ध्वरेतस् बनता है। यह शक्ति का रक्षण करनेवाला पुरुष 'अपां न पात्' है (अपाम्) = वीर्यकणों का (न पात्) = न गिरने देनेवाला। अगले सूक्त का देवता यही 'अपान्नपात्' है।

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    विषय

    मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) हे विद्वान् लोगो ! ( या वः ऊतिः ) जो आप लोगों की रक्षणशक्ति, ज्ञानशक्ति और क्रियाशक्ति और सबको तृप्त और प्रसन्न करने की शक्ति है ( यया ) जिससे ( रघ्रं ) साधक और निर्धन आराधक या उपासक तक को भी ( अंहः अति पारयथ ) पाप से पार कर देने में समर्थ होते हो और ( यया ) जिससे ( निदः ) समस्त निन्दनीय कार्यों को ( मुञ्चथ ) दूर करते या ( निदः ) निन्दक जनसे ( वन्दितारं ) स्तुतिकारी, प्रार्थी पुरुष को ( मुञ्चथ ) मुक्त करते हो, अर्थात् उसको निन्दकों के जाल में नहीं पड़ने देते ( सा ) वह आप लोगों की धन, ज्ञान, और मन्त्रमयी पालनकारिणी शक्ति ( अर्वाची ) अश्वादि सैन्यों को प्राप्त होकर और ( सुमतिः ) उत्तम ज्ञानमयी प्रज्ञा ( वाश्रा इव ) उत्तम वाणी या बछड़े के प्रति हंभारती गौ के समान प्रेमवती होकर ( सु ओ जिगातु ) हमें भली प्रकार सभी कार्यों में प्राप्त हो ! इत्येकविंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या क्रियेने अधर्म व निंदा करणाऱ्यांचा त्याग व धर्माची प्रशंसा करणाऱ्याचे ग्रहण, रक्षण, बुद्धिवर्धन होईल ती क्रिया माणसांनी निरंतर करावी, अर्थात् सदैव निंदेचा त्याग व स्तुतीचा स्वीकार करावा. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Mamts, pioneering guides of humanity, divine powers of knowledge and holy intelligence, that virtuous mind and power of protection by which you save the devotee from the taint of sin and let him cross the ocean, by which you save the celebrant from the calumny of maligners, may that power of protection, that noble intelligence, like a loving mother, come hither to me and bring me divine grace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The areas of actions of the learned persons are marked out.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The mortal human beings praise you handsomely in their protective actions and nice intelligences, so that you achieve the maximum success and give up your tendencies connected with the crimes or sins. You give up ill reputations quickly. O learned persons these submissions should reach you fast like a horse.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The human beings should act in such a way that the unrighteous and false denouncers are segregated and the pious or praiseworthy persons are accepted and taken care of, so that the action-oriented wisdom grows. They should always give up the denunciation and accept the praises.

    Foot Notes

    (रध्रम्) संशधनम्। = Accomplishment. (अंह) अपराधम् । = Crime. (निदः) निन्दकान्। = To false denouncers. (वन्दितारम् ) स्तावकम्। =Those who praise. (वाश्रेव) कमनीय इव | = Handsome.

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