ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 11
तान्वो॑ म॒हो म॒रुत॑ एव॒याव्नो॒ विष्णो॑रे॒षस्य॑ प्रभृ॒थे ह॑वामहे। हिर॑ण्यवर्णान्ककु॒हान्य॒तस्रु॑चो ब्रह्म॒ण्यन्तः॒ शंस्यं॒ राध॑ ईमहे॥
स्वर सहित पद पाठतान् । वः॒ । म॒हः । म॒रुतः॑ । ए॒व॒ऽयाव्नः॑ । विष्णोः॑ । ए॒षस्य॑ । प्र॒ऽभृ॒थे । ह॒वा॒म॒हे॒ । हिर॑ण्यऽवर्णान् । क॒कु॒हान् । य॒तऽस्रु॑चः । ब्र॒ह्म॒ण्यन्तः॑ । शंस्य॑म् । राधः॑ । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तान्वो महो मरुत एवयाव्नो विष्णोरेषस्य प्रभृथे हवामहे। हिरण्यवर्णान्ककुहान्यतस्रुचो ब्रह्मण्यन्तः शंस्यं राध ईमहे॥
स्वर रहित पद पाठतान्। वः। महः। मरुतः। एवऽयाव्नः। विष्णोः। एषस्य। प्रऽभृथे। हवामहे। हिरण्यऽवर्णान्। ककुहान्। यतऽस्रुचः। ब्रह्मण्यन्तः। शंस्यम्। राधः। ईमहे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 11
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मरुतो मनुष्या यथा वयं वस्तानेषस्य विष्णोः प्रभृथे मह एवयाव्नो हिरण्यवर्णान् ककुहान् यतस्रुचो हवामहे ब्रह्मण्यन्तः शंस्यं राध ईमहे तथा यूयमस्मभ्यं प्रयतध्वम् ॥११॥
पदार्थः
(तान्) (वः) युष्मभ्यम् (महः) महतः (मरुतः) मनुष्याः (एवयाव्नः) य एवं विज्ञानं यान्ति तान् (विष्णोः) व्यापकस्य (एषस्य) ऐश्वर्यवतः (प्रभृथे) प्रकृष्टे पालने (हवामहे) स्वीकुर्महे (हिरण्यवर्णान्) हिरण्यमिव वर्णो येषान्तान् (ककुहान्) महतः। ककुह इति महन्नाम निघं० ३। ३। (यतस्रुचः) यताः स्रुचो यज्ञपात्राणि यैस्तान् त्विजः। यत स्रुच इति त्विग्ना० निघं० ३। १८। (ब्रह्मण्यन्तः) आत्मनो ब्रह्मेच्छन्तः (शंस्यम्) प्रशंसनीयम् (राधः) धनम् (ईमहे) याचामहे ॥११॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैः परस्परस्मिन् प्रीत्या दुष्टेष्वप्रेम्णा च वर्त्तित्वा विष्णोरीश्वरस्य भक्तौ प्रयतनीयम् ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषयको अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (मरुतः) मनुष्यो जैसे हमलोग (वः) तुम्हारे लिये (तान्) उनको (एषस्य) ऐश्वर्यवाले (विष्णोः) व्यापक ईश्वर के (प्रभृथे) अत्युत्तम पालन में (महः) महान् व्यवहार के (एवयाव्नः) इस प्रकार विशेष ज्ञानको पाते हैं उन (हिरण्यवर्णान्) हिरण्य-सुवर्ण के समान वर्णवाले (ककुहान्) बड़े (यतस्रुचः) नियम से यज्ञपात्रों के रखनेवाले को (हवामहे) स्वीकार करते हैं और (ब्रह्मण्यतः) अपने को ईश्वर वा वेद की इच्छा करते हुए विद्वानों को (शंस्यम्) प्रशंसनीय (राधः) धनकी (ईमहे) याचना करते हैं, वैसे तुम हमारे लिये प्रयत्न करो ॥११॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि परस्पर एक-दूसरे से प्रीति के साथ और दुष्टों में अप्रीति के साथ वर्त्तकर व्यापक ईश्वर की भक्ति में प्रयत्न करें ॥११॥
विषय
उन्नति के शिखर पर
पदार्थ
१. हे (महः मरुतः) = महत्त्वपूर्ण प्राणो ! (तान् वः) = उन आप को, जो आप (एवयानः) = मार्ग पर चलनेवाले हो [एव= मार्ग], (विष्णो:) = उस व्यापक प्रभु की (एषस्य) = [आ इषस्य] व्यापक प्रेरणा के (प्रभृथे) = प्रकर्षेण धारण के निमित्त (हवामहे) = पुकारते हैं। प्राणसाधना होने पर अशुद्धि का क्षय होने से मनुष्य कभी मार्ग से विचलित नहीं होता। हृदय की शुद्धता के कारण प्रभुप्रेरणा को सुनने योग्य बनता है। २. इन (हिरण्यवर्णान्) = ज्योतिर्मय वर्णवाले (ककुहान्) = श्रेष्ठ शिखर पर पहुँचानेवाले प्राणों को, (यतस्स्रुचः) = यज्ञार्थ चम्मचों को हाथ में लेनेवाले– यज्ञशील, (ब्रह्मण्यन्तः) = ज्ञान की कामनावाले हम (शंस्यम्) = प्रशंसनीय (राधः) = धन को (ईमहे) = मांगते हैं। प्राणसाधना से मनुष्य तेजस्वी बनता है— चमकते हुए वर्णवाला होता है। इससे उन्नति के शिखर पर पहुँचता है और श्रेष्ठ धन को प्राप्त करनेवाला होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्राणायाम द्वारा सब दोषों का नाश होकर पवित्र हृदय में प्रभुप्रेरणा सुन पड़ती है । तेजस्विता व श्रेष्ठता प्राप्त होती है और मनुष्य श्रेष्ठ धन को प्राप्त करनेवाला बनता है।
विषय
मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) वीरो और विद्वान् पुरुषो ! ( एवयाव्नः ) ज्ञानपूर्वक गमन करने वाले या ज्ञानों को प्राप्त करने वाले ( विष्णोः ) व्यापक शक्ति वाले ( एपस्य ) सबके इच्छा के पात्र, सबके संचालक, अर्थ और यश के चाहने वाले, प्रजाप्रिय राजा के ( प्रभृथे ) उत्तम रीति से भरण-पोषण और प्रजापालन के कार्य में हम लोग ( महः ) बड़े अधिक सामर्थ्य वाले, (हिरण्यवर्णान् ) सुवर्ण के समान वर्ण वाले, उज्ज्वल, कान्तिमान् स्वरूप वाले, या हित और रमणीय वर्णों या शब्दों का उच्चारण करने वाले, ( यतस्रुचः ) यज्ञपात्रों को नियम में रखने वाले ऋत्विजों के समान राज्य के प्रजाजनों के और अपने प्राणों और वीर्य आदि को नियम में रखने और पालन करने वाले ( वः तान् ) उन आप लोगों को ( ककुहान् ) महान्, सर्वश्रेष्ठ ( हवामहे ) स्वीकार करें। और ( ब्रह्मण्यन्तः ) अन्न की आकांक्षा करने वाले किसान जिस प्रकार व्यापक मेघ के लाने वाले मरुतों को चाहते हैं और उससे उत्तम जल और अन्न चाहते हैं और जिस प्रकार ( ब्रह्मण्यन्तः शंस्यं राधः ) ब्रह्म ज्ञान के इच्छुक जन उत्तम आराधनीय ज्ञान प्रवचन चाहते और उसके लिये उत्तम विद्वानों को प्राप्त करते हैं उसी प्रकार हम लोग भी ( ब्रह्मण्यन्तः ) बृहत् ऐश्वर्य की चाहना करते हुए ( शंस्यं ) प्रशंसनीय ( राधः ) धन और ( शंस्यं राधः ) उत्तम कार्यसाधक बल ( ईमहे ) चाहते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी एकमेकांबरोबर प्रीतीने व दुष्टांबरोबर अप्रीतीने वागून व्यापक ईश्वराची भक्ती करण्याचा प्रयत्न करावा. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Such as you are, O great Maruts, who thus venture out to exploit the earth and the skies in search of knowledge and life’s energy, we invoke and exhort you for the fulfilment of the omnipresent lord Vishnu’s love and desire for the progress and prosperity for his children. And thus do we, having raised our ladles of yajna as our share in our effort for piety, honour and prosperity, pray for the gifts of the Maruts, heroes of the golden hue great and, marvellous in their own right.
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