ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
उ॒क्षन्ते॒ अश्वाँ॒ अत्याँ॑इवा॒जिषु॑ न॒दस्य॒ कर्णै॑स्तुरयन्त आ॒शुभिः॑। हिर॑ण्यशिप्रा मरुतो॒ दवि॑ध्वतः पृ॒क्षं या॑थ॒ पृष॑तीभिः समन्यवः॥
स्वर सहित पद पाठउ॒क्षन्ते॑ । अश्वा॑न् । अत्या॑न्ऽइव । आ॒जिषु॑ । न॒दस्य॑ । कर्णैः॑ । तु॒र॒य॒न्ते॒ । आ॒शुऽभिः॑ । हिर॑ण्यऽशिप्राः । म॒रु॒तः॒ । दवि॑ध्वतः । पृ॒क्षम् । या॒थ॒ । पृष॑तीभिः । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उक्षन्ते अश्वाँ अत्याँइवाजिषु नदस्य कर्णैस्तुरयन्त आशुभिः। हिरण्यशिप्रा मरुतो दविध्वतः पृक्षं याथ पृषतीभिः समन्यवः॥
स्वर रहित पद पाठउक्षन्ते। अश्वान्। अत्यान्ऽइव। आजिषु। नदस्य। कर्णैः। तुरयन्ते। आशुऽभिः। हिरण्यऽशिप्राः। मरुतः। दविध्वतः। पृक्षम्। याथ। पृषतीभिः। सऽमन्यवः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ राजविषयमाह।
अन्वयः
हे समन्वयो मरुतो यथाऽश्वानत्यानिवाजिषु नदस्य कर्णैरिवाशुभिस्तुरयन्ते हिरण्यशिप्रा दविध्वतः पृषतीभिः पृक्षमुक्षन्ते तथैतद्यूयं याथ ॥३॥
पदार्थः
(उक्षन्ते) सिञ्चन्ति (अश्वान्) (अत्यानिव) यथाऽश्वाः सततं सद्यो गच्छन्ति तथा (आजिषु) सङ्ग्रामेषु (नदस्य) जलेन पूर्णस्य जलाशयस्य मध्ये (कर्णैः) नौचालकैः (तुरयन्ते) सद्यो गमयन्ति (आशुभिः) शीघ्रगन्तृभिरश्वैः (हिरण्यशिप्राः) हिरण्यमिव शिप्राणि मुखानि येषान्ते (मरुतः) मनुष्याः (दविध्वतः) दुष्टान् कम्ययन्तः, इदं पदं दाधर्त्तीत्यत्र निपातितम्। अ० ७। ४। ६४ (पृक्षम्) सेचनीयम् (याथ) प्राप्नुथ (पृषतीभिः) वायुगतिसदृशगतिविष्टाभिर्धाराभिः (समन्यवः) मन्युना सह वर्त्तमानाः ॥३॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यथा शिक्षका अश्वान् कैवर्त्ता नावं सुष्ठु गमयन्ति तथा स्वसेना नयेयुः ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राज विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (समन्यवः) क्रोध में भरे (मरुतः) मनुष्यों जैसे (अश्वान्) घोड़ों को (अत्यान्) निरन्तर चलने वाल घोड़ों के समान वा (आजिषु) संग्रामों में (नदस्य) जल से पूर्ण बड़े जलाशय के बीच (कर्णैः) नौकाओं के चलानेवालों के समान (आशुभिः) शीघ्र चलनेवाले घोड़ों के साथ (तुरयन्ते) शीघ्र चलाते हैं वा (हिरण्यशिप्राः) सुवर्ण के सदृश मुखवाले (दविध्वतः) दुष्टों को कंपाते हुए (पृषतीभिः) पवन की गतियों के समान गतियों से युक्त धाराओं से (पृक्षम्) सींचने योग्य को (उक्षन्ते) सींचते हैं वैसे इस व्यवहार को तुम लोग प्राप्त होओ ॥३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शिक्षा करनेवाले जन घोड़ों को वा केवट नाव को उत्तम रीति पर चलाते हैं, वैसे राजजन अपनी सेना को पहुँचावें ॥३॥
विषय
प्रभु का सम्पर्क
पदार्थ
१. मरुतः प्राण (अश्वान्) = इन्द्रियाश्वों को, शरीर में रक्षित किये हुए रेतः कणों से (उक्षन्ते) = सिक्त करते हैं। रक्षित रेतःकणों की शक्ति से इन्द्रियों को परिपूर्ण करते हैं। इस प्रकार शक्ति से सिक्त करते हैं (इव) = जैसे कि (आजिषु) = संग्रामों में (अत्यान्) = घोड़ों को संग्राम में घोड़ों को स्वेदादि के अपनोदन के लिए जल से सिक्त करते हैं, इसी प्रकार यहाँ अध्यात्म-संग्राम में इन्द्रियाश्वों को रेतः कणों से सिक्त करते हैं । २. (नदस्य) = स्तोता के (आशभिः) = शीघ्रता से कार्यों में व्याप्त होनेवाले कर्णैः = स्तुति - शब्दों से तुरयन्तः = इन अश्वों को शीघ्र गतिवाला करते हैं, अर्थात् प्राणसाधना करनेवाला पुरुष प्रभु का स्तवन करता है और इन्द्रियों से कर्त्तव्यकर्मों में प्रवृत्त होता है ३. हिरण्यशिप्राः = (शिप्रं शिरस्त्राणम्) ज्योतिर्मय शिरस्त्राणवाले-ज्ञान ही जिनके मस्तिष्क का रक्षक है, ऐसे (दविध्वतः) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को कम्पित करनेवाले (मरुतः) = प्राणो! आप (समन्यवः) = ज्ञानयुक्त होकर [मन्-अवबोधने] (पृषतीभिः) = अपने इन इन्द्रियाश्वों से (पृक्षं याथ) = प्रभु का सम्पर्क प्राप्त करते हो । प्राणसाधना से [क] रेतःकणों का रक्षण होकर, ज्ञानाग्नि दीप्त होती है । ये रेत:कण ज्ञानाग्नि का ईंधन बनते हैं। [ख] काम-क्रोध आदि शत्रु कम्पित होकर दूर हो जाते हैं। (ग) अन्ततः सब इन्द्रियाँ अपने नियत कर्मों को करती हुई हमें प्रभुप्राप्ति के योग्य बनाती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से इन्द्रियाँ सशक्त बनती हैं। रेतः कणों का रक्षण होकर ज्ञानवृद्धि होती है और अन्ततः हमें प्रभु का सम्पर्क प्राप्त होता है ।
विषय
मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।
भावार्थ
( आजिषु ) संग्राम आदि विजय, प्रतिस्पर्द्धा के कार्यों के अनन्तर जिस प्रकार ( मरुतः ) वायु के समान प्रबल वेग से जाने वाले सवार लोग ( अश्वान् अत्यान् इव ) निरन्तर वेग से चलने वाले अश्वों को ( उक्षन्ते ) सेंचते हैं, उनको जल से निहलाते हैं और जिस प्रकार ( मरुतः ) वायु गण ( आजिषु ) मेघों के क्षेपण आदि के कार्यों में ही ( अश्वान् ) व्यापक या विस्तृत देशों को (उक्षन्ते) सींचते हैं उसी प्रकार ( मरुतः ) विद्वान् पुरुष ( अश्वान् उक्षन्ते ) वेगवान् पशुओं और पुरुषों को सींचे उनकी वृद्धि करें और उनको पुष्ट करें। जिस प्रकार ( मरुतः ) वायु गण ( नदस्य ) गर्जते हुए मेघ के ( आशुभिः कर्णैः ) वेग से जाने वाले कर्ण अर्थात् अवयवों सहित ( तुरयन्ते ) अति वेग से चलते और मेघों को वेग से चलाते हैं या वायुगण ( नदस्य ) नदी के बीच ( आशुभिः कर्णैः तुरयन्ते ) वेगवान् साधन पाल, पतवार आदि से चलाते हैं उसी प्रकार ( मरुतः ) विद्वान् लोग नदी के बीच और समृद्धि से पूर्ण राष्ट्र के बीच ( आशुभिः कर्णैः ) वेगवान् साधनों, यानों, और रथों से तथा वेगवान् यन्त्रों से (तुरयन्ते ) वेग से जाते और नाव तथा मशीनों को वेग से चलाते हैं । ( मरुतः ) वायु गण जिस प्रकार ( हिरण्यशिप्राः ) सुवर्ण के समान चमकने वाले तेज से युक्त होकर ( दविध्वतः ) मेघों और वनों को कंपित करते हुए ( पृषतीभिः ) वर्षण करने वाली मेघमालाओं से ( पृक्षं ) सेचन करने योग्य अन्न से युक्त क्षेत्र या देश को प्राप्त होते उसी प्रकार हे ( मरुतः ) विद्वान, व्यापारी जनो ! और हे ( मरुतः ) शत्रु गण को मारने वाले वीर पुरुषो ! आप लोग भी ( हिरण्य-शिप्राः ) हितकारी और रमणीय एवं सुवर्ण के समान उज्ज्वल सुन्दर मुख या वाणी और ज्ञान वाले, एवं हिरण्य अर्थात् सुवर्ण या लोहमय शिरस्त्राण, शस्त्रास्त्र पहन कर ( दविध्वतः ) शत्रुओं को कंपाते हुए ( समन्यवः ) क्रोध से पूर्ण वीर जन और ज्ञान से युक्त विद्वान् होकर ( पृषतीभिः) शस्त्रवर्षी सेनाओं और हृष्टपुष्ट अश्वों, या वायु के समान वेग वाली धारा गतियों से ( वृक्षम् ) धाराओं से जल सेचनें योग्य क्षेत्र के समान शस्त्र वर्षण योग्य पर-राष्ट्र पर ( याथ ) प्रयाण करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे प्रशिक्षक घोड्यांना व नाविक नावांना उत्तम रीतीने चालवितात तसे राजांनी आपल्या सेनेला संचलित करावे. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Maruts, passionate heroes of action, shining in golden helmets, ride and goad their horses in battles like rockets in constant motion and shoot forward like sailors conquering the waves of the sea with instant oars. O Maruts, commanders of the winds, shaking and storming the adversaries in battle contests, go forward and achieve your cherished goal, fast like wind shears shaking, ripping and scattering the clouds.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The subject of Statecrafts is dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As the horses run continuously in the battles, as the boats and ships cross giant rivers and oceans with their fast propellers, the same way you should stop your advancing enemies. Your appearance otherwise is of golden color and the wickeds are afraid of you. Shaken with proper anger of possible retaliation, you pounce upon the enemies with your educative speech.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the trainers make the horses fast running, same way the rulers should carry on their armies on ideal lines.
Foot Notes
(अत्यानिव) अश्वानिव, यथाऽक्ष्वाः सततं सद्यो गच्छन्ति तथा । = Like the fast running horses. (आजिषु) सङ्ग्रामेषु | = In the battles. (नदस्य) जलेन पूर्णस्य जलाशयस्य मध्ये । = In the midst of giant rivers or oceans. (हिरण्यशिप्रा:) हिरण्य मिव शिप्राणि मुखानि येषान्ते = Whose appearances are of golden color. (दविध्वत:) दुष्टान् कम्पयन्तः । इदं पदं दाधर्तीत्यत्न निपातितम् (अ. 7-4-64) = Breaking the nerves of wickeds. (पुषतीभिः) वायुगतिदुसशगतिविष्टाभिर्धाराभिः । = With learning speech.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal