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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मरुतः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    चि॒त्रं तद्वो॑ मरुतो॒ याम॑ चेकिते॒ पृश्न्या॒ यदूध॒रप्या॒पयो॑ दु॒हुः। यद्वा॑ नि॒दे नव॑मानस्य रुद्रियास्त्रि॒तं जरा॑य जुर॒ताम॑दाभ्याः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चि॒त्रम् । तत् । वः॒ । म॒रु॒तः॒ । याम॑ । चे॒कि॒ते॒ । पृश्न्याः॑ । यत् । ऊधः॑ । अपि॑ । आ॒पयः॑ । दु॒हुः । यत् । वा॒ । नि॒दे । नव॑मानस्य । रु॒द्रि॒याः॒ । त्रि॒तम् । जरा॑य । जु॒र॒ताम् । अ॒दा॒भ्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चित्रं तद्वो मरुतो याम चेकिते पृश्न्या यदूधरप्यापयो दुहुः। यद्वा निदे नवमानस्य रुद्रियास्त्रितं जराय जुरतामदाभ्याः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चित्रम्। तत्। वः। मरुतः। याम। चेकिते। पृश्न्याः। यत्। ऊधः। अपि। आपयः। दुहुः। यत्। वा। निदे। नवमानस्य। रुद्रियाः। त्रितम्। जराय। जुरताम्। अदाभ्याः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्विद्वद्विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अदाभ्या रुद्रिया मरुतो यद्वश्चित्रं याम यत्पृश्न्या ऊध आपयो दुहुः। वा यो नवमानस्य निदे त्रितं जुरतां जरायाऽपि चेकिते तद्यूयं गृह्णत ॥१०॥

    पदार्थः

    (चित्रम्) अद्भुतम् (तत्) (वः) युष्माकम् (मरुतः) (याम) प्राप्तव्यं कर्म (चेकिते) जानाति (पृश्न्याः) पृश्नावन्तरिक्षे भवम् (यत्) (ऊधः) पयोऽधिकरणम् (अपि) (आपयः) मित्रतां व्याप्ताः (दुहुः) पिप्रति। अत्र लिटि वाच्छन्दसीति द्वित्वाभावः (यत्) (वा) (निदे) निन्दकाय (नवमानस्य) स्तोतुः (रुद्रियाः) रुद्रस्य मध्यमस्य विदुषः सम्बन्धिनः (त्रितम्) हिंसकम् (जराय) स्तावकाय (जुरताम्) जीर्णानाम् (अदाभ्याः) अहिंसनीयाः ॥१०॥

    भावार्थः

    हे विद्वांसो यूयं निन्दनीयस्य निन्दां स्तवनीयस्य प्रशंसां कृत्वाऽद्भुतानि कर्माणि कुरुत। येन पूर्णमायुर्भुक्त्वा वृद्धावस्थां प्राप्य मरणं स्यात्तदनुतिष्ठत ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर विद्वान् विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अदाभ्याः) न नष्ट करने योग्य (रुद्रियाः) मध्यम विद्वानों के सम्बन्धी (मरुतः) मनुष्यो ! (यत्) जिस (वः) तुम्हारा (चित्रम्) अद्भुत (याम) योग्य कर्म वा (यत्) जिस (पृश्न्याः) अन्तरिक्ष में सिद्ध हुए (ऊधः) जल वा दूध के अधिकरण को (आपयः) मित्रभाव को प्राप्त हुए (दुहुः) परिपूर्ण करते हैं (वा) अथवा (यः) जो (नवमानस्य) स्तुति करने की (निदे) निन्दा करनेवाले के लिये (त्रितम्) हिंसा करनेवाले को (जुरताम्) जीर्णों की (जराय) स्तुति करनेवाले के लिये (अपि) भी (चेकिते) जानता है (तत्) उसको तुम लेओ ॥१०॥

    भावार्थ

    हे विद्वानो ! तुम निन्दा करने योग्य की निन्दा तथा स्तुति करने योग्य की प्रशंसा कर अद्भुत कर्मों को करो, जिससे पूरी आयु भोग वृद्धावस्था पाकर मरण हो, उस अनुष्ठान को करो ॥१०॥

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    विषय

    राष्ट्ररक्षकों के तीन कर्त्तव्य

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = राष्ट्ररक्षक पुरुषो! (वः) = आपका (तद्) = वह (याम) = गमन (चित्रम्) = अद्भुत (चेकिते) = जाना जाता है (यद्) = जब (आपयः) = राष्ट्र में सब आवश्यक वस्तुओं को प्राप्त करानेवाले आप (पृश्न्या ऊधः) = [‘इयं पृथिवी वै पृश्निः' तै० १.४.१५] पृथिवी के ऊधस् का (दुहुः) = दोहन करते हो, अर्थात् पृथिवी में पर्याप्त अन्न उपजाते हो। २. (वा) = अथवा (यद्) = जब (रुद्रिया:) = [रुद्रस्य इमे] दुःखद्रावक राजा के पुरुषो! आप (अदाभ्या:) = अहिंसित होते हुए (नवमानस्य) = स्तुति करनेवाले के (निदे) = निन्दा करनेवाले के (जराय) = हिंसन के लिए होते हो तथा (त्रितम्) = काम-क्रोध-लोभ को तैरनेवाले के (जुरताम्) = हिंसन करनेवालों के विनाश के लिए होते हैं, प्रभुस्तोताओं की जो निन्दा करें-उनके उपहास द्वारा स्तवनवृत्ति का ह्रास होता है तथा 'त्रित' जैसे सज्जनों का हिंसन करनेवाले दुर्जन दण्डनीय होने ही चाहिएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ - राष्ट्ररक्षकों का कर्त्तव्य है कि [क] पृथिवी से अधिक से अधिक अन्न प्राप्त करने की व्यवस्था करें ताकि राष्ट्र में कोई भूखा न रहे । [ख] प्रभुस्तोताओं का समुचित आदर हो [ग] काम आदि को जीतनेवाले पुरुषों को दुष्टों का शिकार न होने दें।

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    विषय

    मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) वायु के समान बलवान् और विद्वान् पुरुषो ! ( वः ) आप लोगों का ( तत् ) वह अद्भुत ( चित्रम् ) विचित्र, आश्चर्यजनक ( याम ) नियम-व्यवस्थापन का कार्य और शत्रु पर चढ़ाई का प्रयाण मार्ग ( चेकिते ) जाना जाता है ( यत् ) जिससे कि जिस प्रकार ( आपयः पृश्न्याः ऊधः ढुहुः ) मेघों को लाने वाले मेघ आकाश या सूर्य के जल-भण्डार को दुहते हैं उसी प्रकार आप्त बन्धुवर्ग, और मित्रवर्ग ( पृश्न्याः ) पृथिवी के ( ऊधः ) जलादि के आश्रय स्थानों को ( ऊधः ) गौ के स्तनमण्डल के समान दोहते हैं । और ( यत् ) जो आपका अद्भुत कर्म स्वभावतः ( नवमानस्य ) स्तुतिशील विद्वान् पुरुष के ( निदे त्रितं ) निन्दा करने वाले का विनाशक होता है और हे ( अदाभ्याः ) अहिंसनीय, बलवान् ( रुद्रियाः ) दुष्टों के रुलाने के पदों पर स्थित पुरुषो ! आप लोगों का वह अद्भुत कार्य ही ( जुरताम् ) अपनी आयु को क्रम से व्यतीत करने वाले जीर्ण प्राणियों के ( जराय ) स्वयं आयु पूर्ण कर मृत्यु को प्राप्त होने के लिये भी ( त्रितं ) तीनों अवस्था बाल, यौवन, वार्धक्य या तीनों आश्रम ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ इनसे पार पहुंचा देने वाला होता है। विद्वान् समाज की ऐसी व्यवस्था करें कि विद्वानों के निन्दक दण्ड पावें और प्रजा के बृद्ध जन सुखपूर्वक चारों आश्रमों का भोग कर सकें। सभी प्रजाजन परस्पर बन्धु होकर भूमि के सुखों को प्राप्त करें । इति विंशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे विद्वानांनो! तुम्ही निंदा करणाऱ्यांची निंदा व स्तुती करणाऱ्यांची स्तुती करून अद्भुत काम करा. ज्यामुळे पूर्ण आयुष्य भोगून वृद्धावस्था प्राप्त करून मरण यावे, असे अनुष्ठान करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Maruts, defenders and pioneers of the social order, friends of humanity, wondrous is that yajnic exploit of yours so well known, when from heights of the skies and depths of the earth you churn out and distil the nectar of life which again, O friends of Rudra, lord of light and justice, and indomitable warriors, becomes a fatal antidote against the maligners of your celebrants and the weary weakness of the aging.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of learned persons still goes on.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The persons who had studied and observed celibacy up to the age of 36 years, they are not easily overcome. They also learn thoroughly and friendly the mystery of water rained through the clouds. Such a person distinctly knows varying characteristics of the violent aged and admirers. Treat them in accordance with their qualities.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons you should denounce a person who deserves it and praise the second category. You should do it till the end of your full life, up to the old age.

    Foot Notes

    (पुश्न्याः) पृश्नावन्तरिक्षे भवम्। = Rained through the clouds or sky. (दुहुः) पिप्रति । अत्र लिटि वाच्छन्दसीति द्वित्वाभावः । = Accomplish. (नवमानस्य) स्तोतुः । = Of the admirers.

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