Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    आ नो॒ ब्रह्मा॑णि मरुतः समन्यवो न॒रां न शंसः॒ सव॑नानि गन्तन। अश्वा॑मिव पिप्यत धे॒नुमूध॑नि॒ कर्ता॒ धियं॑ जरि॒त्रे वाज॑पेशसम्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । ब्रह्मा॑णि । म॒रु॒तः॒ । स॒ऽम॒न्य॒वः॒ । न॒राम् । न । शंसः॑ । सव॑नानि । ग॒न्त॒न॒ । अश्वा॑म्ऽइव । पि॒प्य॒त॒ । धे॒नुम् । ऊध॑नि । कर्ता॑ । धिय॑म् । ज॒रि॒त्रे । वाज॑ऽपेशसम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नो ब्रह्माणि मरुतः समन्यवो नरां न शंसः सवनानि गन्तन। अश्वामिव पिप्यत धेनुमूधनि कर्ता धियं जरित्रे वाजपेशसम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। ब्रह्माणि। मरुतः। सऽमन्यवः। नराम्। न। शंसः। सवनानि। गन्तन। अश्वाम्ऽइव। पिप्यत। धेनुम्। ऊधनि। कर्ता। धियम्। जरित्रे। वाजऽपेशसम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे समन्यवो मरुतो यूयं नो ब्रह्माणि कर्त्ताऽश्वामिवोधनि धेनुं पिप्यत नरान्न शंसः सवनान्यागन्तन जरित्रे वाजपेशसं धियं कुरुत ॥६॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (नः) अस्मभ्यम् (ब्रह्माणि) धनानि (मरुतः) मनुष्याः (समन्यवः) सक्रोधाः (नराम्) मनुष्याणाम् (न) इव (शंसः) स्तुतिः (सवनानि) ऐश्वर्याणि (गन्तन) (अश्वामिव) बडवामिव (पिप्यत) प्राप्नुत (धेनुम्) वाणीम् (ऊधनि) रात्रौ (कर्त्त) कुरुत। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (धियम्) प्रज्ञाम् (जरित्रे) स्तावकाय (वाजपेशसम्) वाजस्य विज्ञानस्य पेशो रूपं यस्यान्ताम् ॥६॥

    भावार्थः

    अत्र द्वावुपमालङ्कारौ। ये मनुष्या मनुष्यस्वभावजां प्रशंसां प्राप्य सुविधां वाचं प्रज्ञां च वर्द्धयित्वा सर्वान्सुखैरलं कुर्वन्तु ते सुखिनो जायन्ते ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (समन्यवः) क्रोध से युक्त (मरुतः) मनुष्यो ! तुम (नः) हम लोगों के लिये (ब्रह्माणि) धनों को (कर्त्त) सिद्ध करो (अश्वामिव) घोड़ी के समान (ऊधनि) रात्रि में (धेनुम्) वाणी को (पिप्यत) प्राप्त होओ (नराम्) मनुष्यों की (न) जैसे (शंसः) स्तुति वैसे (सवनानि) ऐश्वर्यों को (आ,गन्तन) प्राप्त होओ (जरित्रे) स्तुति करनेवाले के लिये (वाजपेशसम्) विज्ञान का जिसमें रूप विद्यमान उस (धियम्) उत्तम बुद्धि को सिद्ध करो ॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो मनुष्य मनुष्यस्वभाव से उत्पन्न हुई प्रशंसा को प्राप्त होके उत्तम विद्या, वाणी और उत्तम बुद्धि को बढ़ाकर सर्वमनुष्यों को सुखों से अलंकृत करें, वे सुखी होते हैं ॥६॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ज्ञान+स्तवन+व यज्ञ

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि हे (समन्यवः) = ज्ञानवाले-सदा ज्ञान की रुचिवाले-(मरुतः) = प्राणसाधक पुरुषो! तुम (नः) = हमारे (ब्रह्माणि) = इन ज्ञानों को इस प्रकार (आगन्तन) = प्राप्त होओ (न) = जैसे कि (नरां शंसः) = नर मनुष्यों के स्तवन को। आलसियों का स्तवन वह होता है, जिसमें वे प्रभु का कीर्तन तो करते हैं, परन्तु उन स्तवनों के अनुसार अपने जीवनों को बनाने का यत्न नहीं करते। नरों का शंसन यह है कि प्रभु दयालु हैं तो वे दयालु बनने का प्रयत्न करते हैं। प्रभु न्यायकारी हैं तो वे भी न्याय्य पथ का अनुसरण करते हैं। साथ ही (सवनानि) = यज्ञों को तुम प्राप्त होओ। समझदार पुरुष ज्ञान- स्तवन व यज्ञों की ओर झुकते हैं । २. (अश्वाम् इव धेनुम् ऊधनि पिप्यत्) = कर्मों में व्याप्त होनेवाली [अश् व्याप्तौ] कर्मेन्द्रियों की भाँति, [धेनुं] ज्ञानदुग्ध से प्रीणित करनेवाली ज्ञानेन्द्रियों को समुच्छ्रित प्रदेश में [ऊधनि] आप्यायित करो। कर्मेन्द्रियाँ उत्कृष्ट कर्मों में व्याप्त हों तथा ज्ञानेन्द्रियां ऊँचे से ऊँचे ज्ञान को प्राप्त कराने में सहायक हों। ३. वे प्रभु (जरित्रे) = स्तोता के लिए (वाजपेशसम्) = शक्ति का निर्माण करनेवाली (धियम्) = बुद्धि को (कर्ता) = करनेवाले हैं। हम प्रभु का स्तवन करते हैं - प्रभु हमें शक्तियुक्त ज्ञान प्राप्त कराते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान प्राप्त करें। पुरुषार्थ के साथ प्रार्थना व स्तवन करें। यज्ञशील हों। कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों को उत्कृष्ट कर्मों व ज्ञानप्राप्तियों में व्याप्त करें।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    भावार्थ

    हे ( समन्यवः मरुतः ) समान चित्त और उत्तम ज्ञान और क्रोध रोष से युक्त विद्वान् ज्ञानवान् और वीर पुरुषो ! जिस प्रकार ( मरुतः ऊधनि ब्रह्माणि ) वायु गण ही मेघ के आधार पर अन्नों को उत्पन्न करते हैं उसी प्रकार तुम लोग भी ( ऊधनि नः ) मेघ के समान निरन्तर ज्ञान प्रदान करने वाले विद्वान् पुरुष के आश्रय होकर ( ब्रह्माणि कर्त्त ) उत्तम ज्ञान और धनैश्वर्यों को उत्पन्न करो । और ( शंसः न ) स्तुति वचनों के समान ( नराशंसः ) मनुष्यों को उपदेश और शासन करने वाले होकर ( सवनानि ) ऐश्वर्यों और अभिषेकयोग्य पदों को ( गन्तन ) प्राप्त होवो । और हे वीर पुरुषो ! जिस प्रकार ( अश्वाम् इव ) अश्वों की सेना को या राष्ट्र की व्यापक शक्ति को ( पिप्यत ) बढ़ाओ, उसी प्रकार ( ऊधनि धेनुम् ) दूध देने वाले थन को लक्ष्य कर अर्थात् बहुत अधिक दूध पाने के लिये ‘धेनु’ अर्थात् गो सम्पदा को बढ़ाओ । हे विद्वान् पुरुषो ! तुम लोग ( ऊधनि धेनुम् पिप्पत ) उषा काल या रात्रि के पिछले भाग में अपनी ज्ञान रस देने वाली वेद वाणी की वृद्धि करो, उसको मनन और पाठ करो । हे विद्वानो और वीर पुरुषो ! आप लोग ( जरित्रे ) स्तुति या उपदेश करने वाले विद्वान् और शत्रु की हानि करने वाले वीर पुरुष की वृद्धि के लिये ( वाजपेशसं धियं कर्त्त ) विज्ञान से युक्त रूप वाली बुद्धि अन्न और सुवर्णादि से युक्त धारण शक्ति को उत्पन्न करो उसे बढ़ाओ । (२) वायु गण के पक्ष में—वे मरुद् गण ( ब्रह्माणि ) अन्नों को वृष्टि द्वारा उत्पन्न करते हैं, तीनों कालों में चलते हैं, सूर्य की व्यापक शक्ति के समान ( ऊधनि धेनुं पिप्यत ) भूमि को मेघ के बल पर तृप्त करते, जरिता सूर्य के अन्न बल देने वाली धारण शक्ति को प्रकट करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात दोन उपमालंकार आहेत. जी माणसे प्रशंसायुक्त बनून विद्या, वाणी, उत्तम बुद्धी वाढवितात ती सर्व माणसांना सुखी करतात व सुखी होतात. ॥ ६ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Maruts, heroes of mankind, impassioned with the will to act and equanimity of mind to think, come and grace our sessions of yajnic celebrations, admired universally as you are among people. Come for the development of wealth and prosperity. Develop the mare for speed as well as the cow for plenty of milk. And for the admirer and celebrant, create and award ample wealth of intelligence and knowledge with noble language and competence for karma with precious gifts.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of learned persons further moves.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! blessed with proper anger, you get us the wealth. As a mare takes a rider on the right path in darkness, same way you listen to our submissions. You get the desired prosperity in accordance with your submissions made to other human beings, In return, you also get us-your admirers, intelligence and wisdom which are totally scientific.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The persons who are admired and serve others with their knowledge speech and nice wisdom, they enjoy happiness.

    Foot Notes

    (समन्यवः) सोधा:। = Having proper anger. (अश्वामिव) वडवामिव = Like mare. (कर्त्त ) कुरुत | अत्न यचोतस्तिङ इति दीर्घः । = You get us. ( वाजपेशसम्) वाजस्य विज्ञानस्य पेशो रुपं यस्यान्ताम् । = Intelligence = and wisdom.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top