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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मरुतः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यो नो॑ मरुतो वृ॒कता॑ति॒ मर्त्यो॑ रि॒पुर्द॒धे व॑सवो॒ रक्ष॑ता रि॒षः। व॒र्तय॑त॒ तपु॑षा च॒क्रिया॒भि तमव॑ रुद्रा अ॒शसो॑ हन्तना॒ वधः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । नः॒ । म॒रु॒तः॒ । वृ॒कऽता॑ति । मर्त्यः॑ । रि॒पुः । द॒धे । व॒स॒वः॒ । रक्ष॑त । रि॒षः । व॒र्तय॑त । वपु॑षा । च॒क्रिया॑ । अ॒भि । तम् । अव॑ । रु॒द्राः॒ । अ॒शसः॑ । ह॒न्त॒न॒ । वध॒रिति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो नो मरुतो वृकताति मर्त्यो रिपुर्दधे वसवो रक्षता रिषः। वर्तयत तपुषा चक्रियाभि तमव रुद्रा अशसो हन्तना वधः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः। नः। मरुतः। वृकऽताति। मर्त्यः। रिपुः। दधे। वसवः। रक्षत। रिषः। वर्तयत। तपुषा। चक्रिया। अभि। तम्। अव। रुद्राः। अशसः। हन्तन। वधरिति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 9
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राजपुरुषविषयमाह।

    अन्वयः

    हे वसवो मरुतो यो वृकताति मर्त्यो रिपुस्तपुषा नोऽस्मान्दधे तस्माद्रिषोऽस्मात्पृथग्रक्षत। हे रुद्रा यूयं चक्रिया अशसोऽवहन्तन योऽस्मान् रक्षति तमभिरक्षत येनान्यस्य वधः क्रियते तं कारागृहेऽभिवर्त्तयत ॥९॥

    पदार्थः

    (यः) (नः) अस्मान् (मरुतः) विद्वांसः (वृकताति) वृको वज्र एव (मर्त्यः) (रिपुः) स्तेनः। रिपुरिति स्तेना० निघं० ३। ३४ (दधे) दधाति। अत्र लडर्थे लिट् (वसवः) वसुसंज्ञकाः (रक्षत) अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (रिषः) हिंसकान् (वर्त्तयत) (तपुषा) परितापेन क्रोधादिना (चक्रिया) चक्रेण (अभि) अभितः (तम्) (अव) (रुद्राः) मध्यमा विद्वांसो दुष्टानां रोदयितारः (अशसः) अहिंसकस्य (हन्तन) घ्नत। अत्राऽन्येषामपीति दीर्घः (वधः) हननम् ॥९॥

    भावार्थः

    राजपुरुषैर्हिंसकेभ्यः प्रजाः पृथग् रक्ष्य रिपून्निवार्य्य बध्वा वा धर्मेण राज्यं शासनीयम् ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजपुरुषों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वसवः) वसु संज्ञावाले (मरुतः) विद्वान् मनुष्यो ! (यः) जो (वृकताति) वज्र ही (मर्त्यः) मरणधर्मा (रिपुः) चोर (तपुषा) सब ओर से ताप देनेवाले क्रोध आदि से (नः) हमलोगों को (दधे) धारण करता है उससे (रिषः) हिंसकों को अलग (रक्षत) रखो, हे (रुद्राः) दुष्टों को रुलानेवाले मध्यम विद्वानो ! तुम (चक्रिया) चक्र से (अशसः) अहिंसक जो दूसरों का विनाश नहीं करता उसको (अव,हन्तन) न मारो, जो हम लोगों की रक्षा करता है, उसकी सब ओर से रक्षा करो, जिसने और का (वधः) बध किया है, उसको कारागृह अर्थात् जेलखाना में (अभि,वर्त्तयत) सब ओर से वर्त्ताओ ॥९॥

    भावार्थ

    राजपुरुषों को हिंसकों से प्रजाजनों को अलग रख शत्रुओं का निवारण कर वा बाँध के धर्म से राज्य का शासन करना चाहिये ॥९॥

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    विषय

    'लोभी घातक' का नाश

    पदार्थ

    १. हे (मरुतः) = राष्ट्ररक्षक पुरुषो! (यः मर्त्यः) = जो मनुष्य वृकताति आदान की वृत्तिवाला होकर, औरों के धन को छीननेवाला बनकर (नः) = हमारा (रिपुः दधे) = शत्रु बनकर अपने को स्थापित करता है, हे (वसवः) = सबके उत्तम निवास के कारणभूत वसुओ! उस (रिषः) = हिंसक शत्रु से (आ रक्षत) = हमारा रक्षण करो। मरुतों का यह कर्त्तव्य है कि लोभ के कारण चोरी आदि वृत्ति को अपनानेवाले पुरुषों से प्रजाओं का रक्षण करें। २. (तम्) = उस वृकताति पुरुष को (तपुषा) = संतप्त करनेवाले (चक्रिया) = ऋष्टि नामक आयुध से (अभिवर्तयत) = सब ओर से दूर करो। तापकचक्र से उसे संतप्त करके चोरी आदि से दूर करने का यत्न करो। हे (रुद्राः) = प्रजा के कष्टों का निवारण करनेवाले पुरुषो! अथवा दुष्टों को रुलानेवाले पुरुषो! (अशसः) = इन प्रजाभक्षकों के (वधः अवहन्तन) = आयुधों को नष्ट करो । इनके आयुधों का हमारे पर प्रहार न होने दो ।

    भावार्थ

    भावार्थ- राष्ट्ररक्षकों का कर्त्तव्य है कि लोभ के कारण चोरी में प्रवृत्त लोगों से प्रजा का रक्षण करें।

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    विषय

    मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) वीर और विद्वान् पुरुषो ! ( यः ) जो ( मर्त्यः ) मनुष्य ( वृकताति) वज्र के समान कठोर, भेड़िये या चोर के समान प्रजाघातक होकर ( नः ) हम प्रजाओं को ( रिपुः ) चोर या शत्रु के समान ( दधे ) धारण करता, या हमें पकड़े या दबाये रखता है हे ( वसवः ) राष्ट्र में बसे और राष्ट्र को बसाने वाले, ‘वसु’ नाम विद्वान् पुरुषो ! आप लोग ( नः ) हमें ( रिषः ) हिंसक राजा या चोर पुरुष से ( रक्षत ) बचाओ । और ( तम् अभि ) उस पर ( तपुषा ) संतापजनक क्रोध आदि या ( चक्रिया ) सैन्य चक्र से ( वर्तयत ) चढ़ाई करो । हे ( रुद्राः ) दुष्टों को रुलाने वालो ! तुम लोग ( अशसः ) उस प्रजा को खा जाने वाले दुष्ट पुरुष के ( वधः ) हनन करने के योग्य साधनों और घातकों को ( अव हन्तन ) मार गिराओ । अथवा—( अ-शसः ) स्वयं अन्यों को न मारने वाले शस्त्ररहित के ( वधः ) मारने वालों को मार गिराओ । अर्थात् निःशस्त्रों की रक्षा और अत्याचारी का नाश करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजपुरुषांनी हिंसकांपासून प्रजेला दूर ठेवावे. शत्रूंचे निवारण करून धर्माने राज्याचे प्रशासन चालवावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Whoever be the person who, like a wolfish thief or robber or deadly enemy, targets us with anger and torture, O Maruts, shelter home for all and universal saviours, protect us against the violence of the enemy. Whosoever raises the fatal weapon upon us, bind and seal him with punishment and circle him round with vigilance. O Rudras, scholars of the middle order, defenders of law and scourage of the lawless, hurt not, destroy not, those who are non-violent, peace loving and law abiding.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of State officials is mentioned.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you have observed Brahmacharya (celibacy) up to the age of 24 years. You guard us from the killers, thieves, evil doers and sturdy rogues. Because you break the nerves of rogues, but do not hurt a non-violent person with your weapons rather protect the one who takes our care. A person who has committed murder, he should be kept behind the bars and take further action.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of the State officials to safeguard the common men from the clutches of marauders and the enemies, and thus run the administration with righteousness.

    Foot Notes

    (वृकताति) वृको बज्रएव = Sturdy like a wolf. (रिपुः) स्तेन: । रिपुरिति स्तेन नाम (N. G. (3/34 ) = Enemy. ( रुद्रा:) मध्यमा विद्वांसो दुष्टानो रोदयितारः । = Who break the nerves of rogues or had observed celibacy up to to the age of 36 years.

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