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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 34 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 34/ मन्त्र 14
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - मरुतः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    ताँ इ॑या॒नो महि॒ वरू॑थमू॒तय॒ उप॒ घेदे॒ना नम॑सा गृणीमसि। त्रि॒तो न यान्पञ्च॒ होतॄ॑न॒भिष्ट॑य आव॒वर्त॒दव॑राञ्च॒क्रियाव॑से॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तान् । इ॒या॒नः । महि॑ । वरू॑थम् । ऊ॒तये॑ । उप॑ । घ॒ । इत् । ए॒ना । नम॑सा । गृ॒णी॒म॒सि॒ । त्रि॒तः । न । यान् । पञ्च॑ । होतृ॑ॠन् । अ॒भिष्ट॑ये । आ॒ऽव॒वर्त॑त् । अव॑रान् । च॒क्रिया॑ । अव॑से ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ताँ इयानो महि वरूथमूतय उप घेदेना नमसा गृणीमसि। त्रितो न यान्पञ्च होतॄनभिष्टय आववर्तदवराञ्चक्रियावसे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तान्। इयानः। महि। वरूथम्। ऊतये। उप। घ। इत्। एना। नमसा। गृणीमसि। त्रितः। न। यान्। पञ्च। होतॄन्। अभिष्टये। आऽववर्तत्। अवरान्। चक्रिया। अवसे॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 34; मन्त्र » 14
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 21; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    वयमभिष्टय ऊतय इयानस्त्रितो न यान् पञ्चावरान् होतॄन् पञ्चावराञ्चक्रियाऽभिष्टयेऽवस आववर्त्तत् तानूतये महि वरूथं प्राप्य वेदेना नमसोपगृणीमसि ॥१४॥

    पदार्थः

    (यान्) (इयानः) प्राप्नुवन् (महि) महत् (वरूथम्) वरं गृहम् (ऊतये) रक्षणाद्याय (उप) (घ) अपि (इत्) एव (एना) एनेन (नमसा) नमस्कारेण (गृणीमसि) स्तुमः (त्रितः) यस्त्रीणि शरीरात्मसम्बन्धिसुखानि तनोति सः (न) इव (यान्) (पञ्च) प्राणाऽपानव्यानोदानसमानान् (होतॄन्) आदातॄन् (अभिष्टये) अभीष्टसुखाय (आववर्त्तत्) समन्ताद्वर्त्तयते (अवरान्) अर्वाचीनान् (चक्रिया) चक्राविव वर्त्तमानान् (अवसे) कामनायै ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा कर्मोपासनाज्ञानवित्परावरान् वायून् विदित्वा स्वस्य परेषां च रक्षणाय वर्त्तते तथा वयं प्रवर्त्तेमहि यथोत्तमं प्रासादं प्राप्य जनाः सुखिनो भवन्ति तथा वयमपि भवेम ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हम लोग (अभिष्टये) अभीष्ट सुख की (ऊतये) रक्षा आदि के अर्थ (इयानः) प्राप्त होता हुआ कोई जन (त्रितः) जो शरीर और आत्मा सम्बन्धी सुख को विस्तृत है उसके (न) समान (यान्) जिन (पञ्च) पाञ्च (अवरान्) अर्वाचीन (होतॄन्) ग्रहण करनेवालों को और पाँच अर्वाचीन (चक्रिया) चाक के समान वर्त्तमानों को अभीष्ट सुख वा (अवसे) कामना के लिये (आववर्त्तत्) सब ओर से वर्त्तता है (तान्) उनको (ऊतये) रक्षा आदि के लिये (महि) बड़े (वरूथम्) श्रेष्ठ घर को प्राप्त हो (घ,इत्) ही निश्चय कर (एना) इस (नमसा) नमस्कार से (उप,गृणीमसि) उपस्तुत करते हैं अर्थात् उनकी अतिनिकटस्थ ही स्तुति करते हैं ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे कर्मोपासना और ज्ञान विद्या का जाननेवाला अगले-पिछले पवनों को जानकर अपनी और दूसरों की रक्षा के लिये वर्त्तमान है, वैसे हम लोग प्रवृत्त हों ॥१४॥

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    विषय

    प्राणसाधना व महनीय धन

    पदार्थ

    १. (तान्) = उन मरुतों को-प्राणों को (महि वरूथम्) = महनीय धन को ऊतये रक्षा के लिए (इयान:) [इयाना:] = मांगते हुए (घा इत्) = निश्चय से (एना नमसा) = इस नमन द्वारा (उपगृणीमसि) = स्तुत करते हैं। हम प्राणायाम के साथ प्रभुस्तवन करते हुए अपने रक्षण के लिए आवश्यक धन माँगते हैं । २. (यान् पञ्च होतॄन्) = जिन पाँच जीवनयज्ञ के होतृभूत 'प्राण- अपान - व्यान- उदान- समान' को (त्रितः) = 'काम-क्रोध-लोभ' से तैरनेवाला अथवा 'ज्ञान कर्म उपासना' तीनों का विस्तार करनेवाला अभिष्टये इष्टप्राप्ति के लिए, अथवा रोगों पर आक्रमण के लिए (आववर्तत्) = शरीर में समन्तात् आवृत्त करता है। (अवरान्) = [Most excellent नास्ति वरो यस्मात्] इन अवर प्राणों को- अत्यन्त उत्कृष्ट प्राणों को चक्रिया चक्राकार गति से- मेरुदण्ड में स्थित चक्रों में गति से [अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या] (अवसे) = रक्षण के लिए आवृत्त करता है। एक चक्र से दूसरे चक्र में उन प्राणों का धारण करता हुआ मूलाधार चक्र से सहस्रार चक्र तक उन्हें पहुँचाता है। इसे ही योग की भाषा में चक्रभेदन कहते हैं। इससे शरीर में अद्भुत शक्तियों का विकास होता है। योगदर्शन का विभूतिपाद उन शक्तियों के वर्णन से भरा हुआ है। उन शक्तियों में भी न फंसकर आगे बढ़ने से प्रभु की प्राप्ति होती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणसाधना से महनीय धन की प्राप्ति होती है। चक्रों का भेदन होकर अद्भुत शक्ति का विकास होता है ।

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    विषय

    मरुत् नाम वीरों और विद्वानों, व्यापारियों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( त्रितः न ) जिस प्रकार शरीर, वाणी, और मन तीनों को वश करने वाला संयमी, या तीनों प्रकार के सुखों को प्राप्त यजमान पुरुष अपने काम्य यज्ञ करने के लिये ( पञ्च होतॄन् आववर्त्तत् ) पांच होता आदि ऋत्विजों को बैठाता है और ( अवरान् ) अपने अभि मुख बैठे हुओं को ( चक्रिया ) यज्ञ रूप रथ के चक्र के समान ( अवसे ) अपनी रक्षा और यज्ञकर्म-निर्वाह के लिये ( आववर्त्तत् ) उनको सञ्चालित या प्रेरित करता है, और जिस प्रकार ( त्रितः न ) तीनों बन्धनों से युक्त, तीनों पर संयम करने वाला पुरुष ( पञ्च होतॄन् ) यज्ञ के पांच होताओं के समान ही शरीर को धारण करने वाले पांच प्राणों को ( अभीष्टये ) अपने अभीष्ट सुख प्राप्त करने और ( अवसे ) रक्षण, गति, व्यापार आदि करने के लिये ( अवरान् ) अपने अधीन प्राणों को करके ( चक्रिया ) रथ या यन्त्र में लगे चक्रों के समान यथेष्ट ( आववर्त्तत् ) घुमाता और चलाता है उसी प्रकार ( त्रितः ) धन, सैन्य और मन्त्र तीनों प्रकार के बलों को प्राप्त होकर ( यान् ) जिन ( पञ्च ) पांच ( अवरान् ) अपने से छोटे पद पर स्थित अपने अधीन ( होतॄन् ) राज्यपदों के धारण करने वाले अधिकारियों को ( अवसे ) रक्षादि कार्य के लिये ( चक्रिया ) अपने चारों ओर स्थित चक्रव्यूह या सैन्यमण्डल के द्वारा ( आववर्तत् ) सञ्चालित करे वह ( तान् इयानः ) उनको प्राप्त होता हुआ ही ( ऊतये ) रक्षा करने के लिये ( महि वरूथम् ) बड़ा भारी श्रेष्ठ राज्य, गृह और सैन्य को ( आववर्त्तत् ) सञ्चालित करता और प्राप्त करता है। हम प्रजा लोग भी ( ऊतये ) अपनी रक्षा के लिये ( एना ) इस प्रकार के ( नमसा ) शत्रु को नमाने वाले बल के. निमित्त ही उसकी ( उप गृणीमसि ) विनय से स्तुति प्रार्थना करें कि वह हमारी उस बल से रक्षा करे । ( २ ) अध्यात्म में—देह के पांच होता प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान हैं। संयमी उनको वश करके यन्त्रस्थ चक्रों के समान सञ्चालित करे । उनको वश करके ही बड़ा सुख पाता है । उस प्रभु से ज्ञान प्राप्ति के लिये सादर प्रार्थना करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ८,९ निचृज्जगती २,१०, ११, १२, १३ विराड् जगती । ४, ५, ६, ७, १४ जगती । १५ निचृत् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जशी कर्मोपासना व ज्ञानोपासना करणारा (माणूस) मागच्या पुढच्या वायूला जाणून आपले व दुसऱ्याचे रक्षण करतो तसे तुम्ही लोकही प्रवृत्त व्हा. जसे उत्तम प्रासाद मिळाल्यावर लोक सुखी होतात तसे आम्हीही व्हावे. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Wanting a great home for the sake of safety, security and advancement, we praise and, with humble salutations, do homage to those great and noblest yajakas, i.e., five pranic energies, which Trita, the man commander of those five yajakas, deploys for his safety, security and good fortune, since they are ever fresh, dynamic and ever on the move like a wheel in constant motion.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of learned persons is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    In the search of happiness and security, a person intensifies his efforts to achieve physical and spiritual delight. Same way, another person attempts his best to seek five contemporary and five vicious delights. We request you O learned persons ! to guard such persons and get for them a nice abode. With this objective in view, we present our submissions.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    One who knows the mystery of KARMA (action) and JNANA (knowledge), he becomes capable to guard others. Let us also do like this.

    Foot Notes

    (इयान:) प्राप्नुवन् = Achieving. (वरुषम् ) बरं गृहम् । = Nice abode (गुणमसि ) स्तुमः = = We adore (त्रितः) यस्तुणि शरीरात्मसम्बन्धि सुखानि तनोति सः । = One who receives physical and spiritual delight. (चक्रिया) चक्राविव वत्त मानान्। = Vicious.

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