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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तद॒स्यानी॑कमु॒त चारु॒ नामा॑पी॒च्यं॑ वर्धते॒ नप्तु॑र॒पाम्। यमि॒न्धते॑ युव॒तयः॒ समि॒त्था हिर॑ण्यवर्णं घृ॒तमन्न॑मस्य॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒स्य॒ । अनी॑कम् । उ॒त । चारु॑ । नाम॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । व॒र्ध॒ते॒ । नप्तुः॑ । अ॒पाम् । यम् । इ॒न्धते॑ । यु॒व॒तयः॑ । सम् । इ॒त्था । हिर॑ण्यऽवर्णम् । घृ॒तम् । अन्न॑म् । अ॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदस्यानीकमुत चारु नामापीच्यं वर्धते नप्तुरपाम्। यमिन्धते युवतयः समित्था हिरण्यवर्णं घृतमन्नमस्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। अस्य। अनीकम्। उत। चारु। नाम। अपीच्यम्। वर्धते। नप्तुः। अपाम्। यम्। इन्धते। युवतयः। सम्। इत्था। हिरण्यऽवर्णम्। घृतम्। अन्नम्। अस्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1

    भावार्थ -
    जिस प्रकार ( अपां नप्तुः ) जलों से उत्पन्न, जलों के बीच में भी नाश को प्राप्त न होने वाले विद्युत् का ( अनीकं ) बल और (नाम) स्वरूप ( अपीच्यं ) सुन्दर या गुप्त रूप से रहता है। उस ( हिरण्यवर्णं ) तेजस्वी वैद्युत अग्नि को ( युवतयः समिन्धते ) मिलने वाली जल धाराएं या वैधुनिक धाराएं ही और अधिक चमका देती हैं और उसका ( अन्नम् घृतम् ) अन्न के समान जीवनप्रद ही जल होता है और जिस प्रकार ( अस्य ) इस ( अपां नप्तुः ) जलों के उत्पादक सूर्य का बल और स्वरूप सुन्दर होता है ( युवतयः ) दूर तक फैली दिशाएं जिस को चमकाती है ( घृतम् ) तेज और जल जिसके अन्न के समान किरणों से ग्राह्य और तेजोवर्धक हैं । उसी प्रकार ( अस्य अपां नप्तुः ) इस प्राणों और वीर्यों के न विनाश करने वाले ब्रह्मचारी के ( अनीकम् ) बल और मुख ( उत ) और और ( नाम ) स्वरूप और वशकारिणी शक्ति भी ( अपीच्यं ) सुगुप्त सुन्दर और स्थिर होकर ( वर्धते ) बढ़ती है । ( यम् ) जिस ( हिरण्यवर्णं ) तेजस्वी स्वरूप को देखकर ( इत्था ) इसी कारण से ( सम् इन्धते ) वरण करके और भी अधिक प्रदीप्त करतीं, अर्थात् उसके गुणों की वृद्धि करती हैं ( अस्य ) उसका ( अन्नम् ) खाद्य पदार्थ ( घृतम् ) अग्नि के समान ही घृत से युक्त बल पुष्टिकारक हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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