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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 35 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 11
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अपान्नपात् छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    तद॒स्यानी॑कमु॒त चारु॒ नामा॑पी॒च्यं॑ वर्धते॒ नप्तु॑र॒पाम्। यमि॒न्धते॑ युव॒तयः॒ समि॒त्था हिर॑ण्यवर्णं घृ॒तमन्न॑मस्य॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत् । अ॒स्य॒ । अनी॑कम् । उ॒त । चारु॑ । नाम॑ । अ॒पी॒च्य॑म् । व॒र्ध॒ते॒ । नप्तुः॑ । अ॒पाम् । यम् । इ॒न्धते॑ । यु॒व॒तयः॑ । सम् । इ॒त्था । हिर॑ण्यऽवर्णम् । घृ॒तम् । अन्न॑म् । अ॒स्य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तदस्यानीकमुत चारु नामापीच्यं वर्धते नप्तुरपाम्। यमिन्धते युवतयः समित्था हिरण्यवर्णं घृतमन्नमस्य॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। अस्य। अनीकम्। उत। चारु। नाम। अपीच्यम्। वर्धते। नप्तुः। अपाम्। यम्। इन्धते। युवतयः। सम्। इत्था। हिरण्यऽवर्णम्। घृतम्। अन्नम्। अस्य॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 11
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यदस्य चार्वनीकमुतापीच्यं नामापां नप्तुर्वर्धते यं युवतय इत्था समिन्धते यद्धिरण्यवर्णं घृतमन्नं चास्य वर्तते तद् यूयं विजानीत ॥११॥

    पदार्थः

    (तत्) (अस्य) (अनीकम्) सैन्यमिव तेजः (उत) अपि (चारु) सुन्दरम् (नाम) आख्या (अपीच्यम्) स्वगुणैर्निश्चितम्। अपीच्यमिति निर्णयान्तर्हितनाम निघं० ३। २५। (वर्धते) (नप्तुः) पौत्रादिव वर्त्तमानात् (अपाम्) प्राणानाम् (यम्) (इन्धते) प्रदीपयन्ति (युवतयः) प्रौढयौवनाः (सम्) (इत्था) अनेन हेतुना (हिरण्यवर्णम्) तेजोमयं शोभनस्वरूपम् (घृतम्) उदकमाज्यं वा (अन्नम्) सुशोधितं भोक्तुमर्हम् (अस्य) ॥११॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या यथा युवतिर्युवानं प्राप्य पुत्रपौत्रैर्वर्धते तथा येऽग्निविद्यां जानन्ति ते धनधान्यैर्वर्धन्ते ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अस्य) इस अग्नि का (चारु) सुन्दर (अनीकम्) सैन्य के समान तेज (उत) और (अपीच्यम्) अपने गुणों से निश्चित (नाम) आख्या अर्थात् कथन (अपाम्) प्राणों के (नप्तुः) पौत्र के समान वर्त्तमान व्यवहार से (वर्धते) बढ़ता है वा (यम्) जिसको (युवतयः) प्रबल यौवनवती स्त्री (इत्था) इस हेतु से (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रदीप्त करती हैं वा जो (हिरण्यवर्णम्) तेजोमय शोभनशुद्धस्वरूप (घृतम्) जल वा घी और (अन्नम्) अच्छा शोधा हुआ खाने योग्य अन्न (अस्य) इस अग्नि के सम्बन्ध में वर्त्तमान है, उसको तुम जानो ॥११॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे युवतिजन युवा पुरुष को प्राप्त होकर पुत्र और पौत्रों से बढ़ती है और जो अग्निविद्या को जानते हैं, वे धन धान्यों से बढ़ते हैं ॥११॥

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    विषय

    बल तथा प्रभुस्मरण

    पदार्थ

    १. (अस्य अपां नप्तुः) = इस शक्तिकणों को न नष्ट होने देनेवाले का (तद् अनीकम्) = वह बल, (उत) = और (चारु) = सुन्दर (अपीच्यम्) = अन्तर्हित-ऊँचे उच्चरित न होकर हृदय में ही उच्चरित होनेवाला-(नाम) = प्रभु का नाम स्मरण (वर्धते) = बढ़ता है। शक्तिकणों के रक्षण से बल में भी वृद्धि होती है और हृदय में प्रभुस्मरण की भावना भी बढ़ती है । २. यह 'अपां नप्ता' वह होता है (यम्) = जिसको (युवतयः) = गुणों से मिश्रण व अवगुणों से अमिश्रण करनेवाली वेदवाणीरूप युवतियाँ (इत्था) = सचमुच (समिन्धते) = दीप्त जीवनवाला बनाती हैं। यह शक्तिरक्षक पुरुष वेदवाणियों का अध्ययन करता हैं और उनसे अपने जीवन को दीप्त बनाता है। (अस्य) = इसका (अन्नम्) = अन्न (हिरण्यवर्णम्) = ज्योतिर्मय वर्णवाला और (घृतम्) = मलों के क्षरण व दीप्तिवाला होता है, अर्थात् यह उसी अन्न को खाता है, जो अन्न उसे तेजस्वी, नीरोग व दीप्त जीवनवाला बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- शक्तिकणों के रक्षण से बल की वृद्धि होती है और प्रभुस्मरण की प्रवृत्ति उत्पन्न होती है।

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    विषय

    स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    जिस प्रकार ( अपां नप्तुः ) जलों से उत्पन्न, जलों के बीच में भी नाश को प्राप्त न होने वाले विद्युत् का ( अनीकं ) बल और (नाम) स्वरूप ( अपीच्यं ) सुन्दर या गुप्त रूप से रहता है। उस ( हिरण्यवर्णं ) तेजस्वी वैद्युत अग्नि को ( युवतयः समिन्धते ) मिलने वाली जल धाराएं या वैधुनिक धाराएं ही और अधिक चमका देती हैं और उसका ( अन्नम् घृतम् ) अन्न के समान जीवनप्रद ही जल होता है और जिस प्रकार ( अस्य ) इस ( अपां नप्तुः ) जलों के उत्पादक सूर्य का बल और स्वरूप सुन्दर होता है ( युवतयः ) दूर तक फैली दिशाएं जिस को चमकाती है ( घृतम् ) तेज और जल जिसके अन्न के समान किरणों से ग्राह्य और तेजोवर्धक हैं । उसी प्रकार ( अस्य अपां नप्तुः ) इस प्राणों और वीर्यों के न विनाश करने वाले ब्रह्मचारी के ( अनीकम् ) बल और मुख ( उत ) और और ( नाम ) स्वरूप और वशकारिणी शक्ति भी ( अपीच्यं ) सुगुप्त सुन्दर और स्थिर होकर ( वर्धते ) बढ़ती है । ( यम् ) जिस ( हिरण्यवर्णं ) तेजस्वी स्वरूप को देखकर ( इत्था ) इसी कारण से ( सम् इन्धते ) वरण करके और भी अधिक प्रदीप्त करतीं, अर्थात् उसके गुणों की वृद्धि करती हैं ( अस्य ) उसका ( अन्नम् ) खाद्य पदार्थ ( घृतम् ) अग्नि के समान ही घृत से युक्त बल पुष्टिकारक हो ।

    टिप्पणी

    ‘युवतयः’, दारा शब्द के समान बहुवचन है और पति के लिये सामान्य में एक वचन का प्रयोग जानना चाहिये ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जशा तरुण स्त्रिया तरुण पुरुषांना स्वीकारून नातवंडांसह उन्नती करतात तसे जे अग्निविद्या जाणतात ते धनधान्याने समृद्ध होतात. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    That lustrous power of this child of the waters and its essential name arising from its innate properties is beautiful, and it grows while the youthful maidens raise it in its golden glory like the flames of fire with ghrta, ghrta being its favourite food.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The importance of learned persons is underlined.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men! you should know well the charming splendor and name of the fire which is determined by its properties. It increases by the dealings of the grandson of the Pranas (Vital energy). This fire is well kindled by young women (for the performance of Deva Yajna or Agnihotra) which is in splendid form and it has purified butter after melting for its food.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As a young women having married a young man multiplies their by progeny mutually in the same manner, those persons who know the science of fire grow in prosperity by utilizing the fire for various purposes.

    Foot Notes

    (अनीकम् ) सेन्यम्, इव तेजः | सेनाया वै सेनानीरनीकम् (Stph. 5, 3, 1, 1) = Splendor which is like an army. (अपिच्यम्) स्वगुणैर्निश्चितम् । अपीच्यम् इति निर्णान्तहितनाम । ( N. G. 3-25) = Determined by its properties. (अपाम् ) प्राणानाम् । आपो वै प्राणाः । ( Stph. 3, 8, 2, 4) प्राणो ह्याप: (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे 3, 10, 9) अपां नप्तुः इति पदेन विद्युतोऽपि ग्रहण कर्तु शक्यते। =Of the vital breaths.

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