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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 39 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 39/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - अश्विनौ छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    प्रा॒त॒र्यावा॑णा र॒थ्ये॑व वी॒राऽजेव॑ य॒मा वर॒मा स॑चेथे। मेने॑इव त॒न्वा॒३॒॑ शुम्भ॑माने॒ दम्प॑तीव क्रतु॒विदा॒ जने॑षु॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रा॒तः॒ऽयावा॑ना । र॒थ्या॑ऽइव । वी॒रा । अ॒जाऽइ॑व । य॒मा । वर॑म् । आ । स॒चे॒थे॒ इति॑ । मेने॑इ॒वेति॒ मेने॑ऽइव । त॒न्वा॑ । शुम्भ॑माने॒ इति॑ । दम्प॑तीइ॒वेति॒ दम्प॑तीऽइव । क्र॒तु॒ऽविदा॑ । जने॑षु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रातर्यावाणा रथ्येव वीराऽजेव यमा वरमा सचेथे। मेनेइव तन्वा३ शुम्भमाने दम्पतीव क्रतुविदा जनेषु॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रातःऽयावाना। रथ्याऽइव। वीरा। अजाऽइव। यमा। वरम्। आ। सचेथे इति। मेनेइवेति मेनेऽइव। तन्वा। शुम्भमाने इति। दम्पतीइवेति दम्पतीऽइव। क्रतुऽविदा। जनेषु॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 39; मन्त्र » 2
    अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 2

    भावार्थ -
    हे वर और वधू ! ( रथ्या इव ) रथ में लगने योग्य दो अश्वों के समान या रथ में लगनेवाले चक्रों के समान एक साथ मिलकर ( प्रातःयावाणौ ) प्रातः शीघ्र ही सब कार्यों और उद्देश्यों को प्राप्त करने वाले, ( वीरा ) वीर्यवान् वीर, विक्रमशील, ( अजा इव ) बकरा बकरी के समान परस्पर मिलकर रहते हुए या ( अजा इव ) हानि पहुंचाने वाले, शत्रु को उखाड़ फेंकने वाली सेनाओं के समान, या ( अजा इव ) न उत्पन्न, अनादि दो आत्माओं के समान परस्पर उपास्य उपासक रूप से एक दूसरे के ऊपर प्रेमयुक्त, ( यमा ) यम नियम से रहकर, जितेन्द्रिय होकर ( वरम् ) श्रेष्ठ कार्य और धन को ( आ सचेथे ) प्राप्त करो। और तुम दोनों ( मेने इव ) एक दूसरे का मान आदर करने वाली दो स्त्रियों या स्त्री पुरुषों के समान या मेना नामक दो पक्षियों के समान ( तन्वा ) शरीर से ( शुम्भमाने ) शोभायमान और ( दम्पती इव ) आदर्श पति, पत्नी के समान दाम्पत्य सम्बन्ध का पालन करने वाले होकर ( जनेषु ) सब मनुष्यों के बीच ( क्रतु-विदा ) यज्ञ आदि उत्तम कर्म और श्रेष्ठ ज्ञान का लाभ करके ( आ सचेथे ) परस्पर मिलकर रहो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप। ४, ७, ८ त्रिष्टुप। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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