ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 39/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ग्रावा॑णेव॒ तदिदर्थं॑ जरेथे॒ गृध्रे॑व वृ॒क्षं नि॑धि॒मन्त॒मच्छ॑। ब्र॒ह्माणे॑व वि॒दथ॑ उक्थ॒शासा॑ दू॒तेव॒ हव्या॒ जन्या॑ पुरु॒त्रा॥
स्वर सहित पद पाठग्रावा॑णाऽइव । तत् । इत् । अर्थ॑म् । ज॒रे॒थे॒ इति॑ । गृध्रा॑ऽइव । वृ॒क्षम् । नि॒धि॒ऽमन्त॑म् । अच्छ॑ । ब्र॒ह्माणा॑ऽइव । वि॒दथे॑ । उ॒क्थ॒ऽशसा॑ । दू॒ताऽइ॑व । हव्या॑ । जन्या॑ । पु॒रु॒ऽत्रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
ग्रावाणेव तदिदर्थं जरेथे गृध्रेव वृक्षं निधिमन्तमच्छ। ब्रह्माणेव विदथ उक्थशासा दूतेव हव्या जन्या पुरुत्रा॥
स्वर रहित पद पाठग्रावाणाऽइव। तत्। इत्। अर्थम्। जरेथे इति। गृध्राऽइव। वृक्षम्। निधिऽमन्तम्। अच्छ। ब्रह्माणाऽइव। विदथे। उक्थऽशासा। दूताऽइव। हव्या। जन्या। पुरुऽत्रा॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 39; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
विषय - विद्वानों वीरों और उत्तम स्त्री पुरुषों एवं वर वधू के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
हे स्त्री पुरुषो ! हे विद्वान् और वीर पुरुषो ! ( ग्रावाणा इव ) जिस प्रकार दो बड़ी शिलाएं, चक्की के दोनों पाट, या सिल बट्टा दोनों मिलकर ( अर्थं जरेथे ) किसी भी पदार्थ को पीस कूट कर नष्ट कर देते हैं या जीर्ण, महीन, सूक्ष्मकर और पचने योग्य कर देते हैं और जिस प्रकार ( ग्रावाणा इव ) दो महामेघ या मेघ और वायु मिलकर ( अर्थं ) अर्थ अर्थात् अर्ति, ताप, पीड़ा को ( जरेथे ) नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार आप दोनों ( ग्रावाणा ) उत्तम वचनों और उपदेशों को कहने वाले होकर ( तत् इत् ) उसी परम, उपादेय ( अर्थं ) अर्थ, अर्थात् प्राप्त करने योग्य परम तत्व ब्रह्म का ( जरेथे ) उपदेश करो, वा, ( अर्थं जरेथे ) अति पीड़ाजनक शत्रु का नाश करो । अथवा मेघों के समान पीड़ा को शान्त करो । ( गृध्रा इव वृक्षं ) जिस प्रकार गीधों का जोड़ा वृक्ष पर अपनी आयु शेष करता है। उसी प्रकार तुम दोनों ( वृक्षं ) वृक्ष के समान भूमि को प्राप्त कर स्थित हुए, ( निधिमन्तं ) कोश, खजाने के स्वामी को ( अच्छ ) सदा प्राप्त करो। ( ब्रह्मणा इव विइथे ) यज्ञ में जिस प्रकार दो विद्वान् ब्राह्मण ( उक्थशासा ) उक्थ अर्थात् उत्तम वेदों के सूक्तों को कहने वाले होकर ( जरेथे ) वेद मन्त्रों का उच्चारण करते हैं उसी प्रकार आप दोनों ( विदथे ) ज्ञान उपदेश करने के अवसर में ( ब्रह्माणा ) वेद के विद्वान् ( उक्थशासा ) उत्तम वचन कहने वाले होकर ( जरेथे ) उपदेश करो । ( दूता इव ) और जिस प्रकार दो दूत ( हव्या ) हव अर्थात् युद्धों के अवसरों में संधि विग्रह कराने में कुशल ( जन्या ) जनों के हितकारक होकर ( पुरुत्रा ) बहुत से पुरुषों के त्राण करने वाले होकर ( जरेथे ) अपना संदेश कहते हैं उसी प्रकार तुम दोनों भी ( हव्या ) उत्तम वचनों के योग्य ( जन्या ) उत्तम सन्तान उत्पन्न करने वाले और ( पुरुत्रा ) बहुतसों के रक्षक एवं बहुत पदार्थों के स्वामी होकर ( जरेथे ) जीवन यापन करो ।
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप। ४, ७, ८ त्रिष्टुप। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
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