ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 39/ मन्त्र 5
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
वाते॑वाजु॒र्या न॒द्ये॑व री॒तिर॒क्षीइ॑व॒ चक्षु॒षा या॑तम॒र्वाक्। हस्ता॑विव त॒न्वे॒३॒॑ शंभ॑विष्ठा॒ पादे॑व नो नयतं॒ वस्यो॒ अच्छ॑॥
स्वर सहित पद पाठवाता॑ऽइव । अ॒जु॒र्या । न॒द्या॑ऽइव । री॒तिः । अ॒क्षी इ॒वेत्य॒क्षीऽइ॑व । चक्षु॑षा । आ । या॒त॒म् । अ॒र्वाक् । हस्तौ॑ऽइव । त॒न्वे॑ । शम्ऽभ॑विष्ठा । पादा॑ऽइव । नः॒ । न॒य॒त॒म् । वस्यः॑ । अच्छ॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वातेवाजुर्या नद्येव रीतिरक्षीइव चक्षुषा यातमर्वाक्। हस्ताविव तन्वे३ शंभविष्ठा पादेव नो नयतं वस्यो अच्छ॥
स्वर रहित पद पाठवाताऽइव। अजुर्या। नद्याऽइव। रीतिः। अक्षी इवेत्यक्षीऽइव। चक्षुषा। आ। यातम्। अर्वाक्। हस्तौऽइव। तन्वे। शम्ऽभविष्ठा। पादाऽइव। नः। नयतम्। वस्यः। अच्छ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 39; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
विषय - विद्वानों वीरों और उत्तम स्त्री पुरुषों एवं वर वधू के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
आप दोनों ( वाता इव ) वायुओं या दो प्राणों के समान ( अजुर्या ) जरा रोगादि से भी नाश न होने वाले, सदा बलवान् और क्रियावान्, ( नद्या इव ) दो नदियों या दो जलधाराओं के समान ( रीतिः ) वेग से जाने या परस्पर मिलकर रहने वाले, ( अक्षी इव ) दो आंखों के समान एक ही पदार्थ को एक रूप से देखने वाले, समान प्रेममय होकर ( चक्षुषा ) दर्शन शक्ति से युक्त, विवेकी होकर ( अर्वाक् ) आगे ( यातम् ) जाओ और हमें आगे ले चलो ! और आप दोनों ( हस्ता इव ) दो हाथों के समान और ( पादा इव ) दो पैरों के समान ( तन्वे ) शरीर के लिये ( शम्भविष्ठा ) शान्ति कल्याण उत्पन्न करने वाले होकर ( नः ) हमें ( वस्यः अच्छ नयतं ) उत्तम २ धनों ऐश्वर्यों को प्राप्त कराओ। ( २ ) इसी प्रकार अग्नि, जल भी प्राणों, जलधाराओं, चक्षुओं, हाथों पैरों के समान कार्यसाधक होकर हमें सुख प्राप्त करावें । इति चतुर्थो वर्गः ॥
टिप्पणी -
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ अश्विनौ देवते॥ छन्दः- १ निचृत् त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप। ४, ७, ८ त्रिष्टुप। २ भुरिक् पङ्क्तिः। ५, ६ स्वराट् पङ्क्तिः॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
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