ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 40/ मन्त्र 1
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - सोमापूषणावदितिश्च
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
सोमा॑पूषणा॒ जन॑ना रयी॒णां जन॑ना दि॒वो जन॑ना पृथि॒व्याः। जा॒तौ विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पौ दे॒वा अ॑कृण्वन्न॒मृत॑स्य॒ नाभि॑म्॥
स्वर सहित पद पाठसोमा॑पूषणा । जन॑ना । र॒यी॒णाम् । जन॑ना । दि॒वः । जन॑ना । पृ॒थि॒व्याः । जा॒तौ । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । गो॒पौ । दे॒वाः । अ॒कृ॒ण्व॒न् । अ॒मृत॑स्य । नाभि॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सोमापूषणा जनना रयीणां जनना दिवो जनना पृथिव्याः। जातौ विश्वस्य भुवनस्य गोपौ देवा अकृण्वन्नमृतस्य नाभिम्॥
स्वर रहित पद पाठसोमापूषणा। जनना। रयीणाम्। जनना। दिवः। जनना। पृथिव्याः। जातौ। विश्वस्य। भुवनस्य। गोपौ। देवाः। अकृण्वन्। अमृतस्य। नाभिम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 40; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 8; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
विषय - सोम पूषा, माता पिता के कर्त्तव्य ।
भावार्थ -
( सोमापूषणौ ) सोम अर्थात् उत्पादक पिता और ‘पूषा’ पोषक माता, नर मादा, दोनों ( रयीणां ) नाना प्रकार के पशु सम्पदाओं के और नाना ऐश्वर्यों के भी ( जनना ) उत्पन्न करने वाले होते हैं । और वे दोनों ही ( दिवः ) सूर्य के समान तेजस्वी एवं कामनाशील पुरुष और ( पृथिव्याः ) पृथिवी के समान विस्तृत घर का आश्रय और उसके समान बीज को धारण कर उत्पन्न करने वाली कन्या वा मातृ शक्ति के भी ( जनना ) उत्पन्न करने वाले होते हैं। वे दोनों ही सूर्य और पृथिवी के समान ( विश्वस्य ) समस्त ( भुवनस्य ) उत्पन्न होने वाले जीवों एवं चराचर संसार के भी ( गोपौ ) रक्षा करने वाले, ( जातौ ) हो जाते हैं। उन दोनों को ही ( देवाः ) विद्वान् लोग ( अमृतस्य ) कभी नाश न होने वाले ( अमृतस्य ) सन्तान रूप ‘अमृत’ का ( नामिम् ) केन्द्र या उत्पत्ति स्थान ( अकृण्वन् ) बनावें, मानें और जानें ।
टिप्पणी -
प्रजातिरमृतम् । शत० ॥
सोमः – ( १ ) स्वा वै म एषा इति तस्मात् सोमो नाम । शत० ३।९।४।२२॥ वह पुत्रोत्पादक स्त्री और ऐश्वर्योत्पादक प्रजा मेरी ही है । ऐसा कहने वाला पुरुष, प्रजापति, राजा सोम है।
( २ ) सोमः राज्यम् आदत्त ११।४।३।३॥ राजा वै सोमः ॥ शत० ११। ४। ३। ३॥ सोमो राजा राजपतिः ॥ १४।१। ३। १२॥ स य दाह सोमं वा एतदाह । गो० पू० ५।१३॥ क्षत्रं सोमः ॥ ऐ० २।३८॥ प्राणः सोमः रा० ७।३।१।२॥ रेतः सोमः कौ० १३॥७॥ सोमो रेतोऽदधात् ॥ तै० १।६।२॥ सोमो वै ब्राह्मणः । ता० २३।२६।५॥
पूषा—इयं वै पूरा । इयं हीदं सर्वं पुष्यति यदिदं किञ्च । शत० । ४ । ४। २। २५॥ इयं वै पृथिवी पूषा । शत० २। ५। १४। ७॥ प्रजननं वै पूषा श० ५।२।५।८॥ पशवः पूषा ऐ० २। २४॥ पूषा भागदुधः २। ३। ९। ४ । ३॥
सोम राजा है, वीर्य है, वीर्यवान् पुरुष है। ब्राह्मण है। इसी प्रकार पूषा पृथिवी है, माता है। पशु-सम्पदा हैं और राष्ट्र में करसंग्रही अधिकारी भी पूषा है। देह में—प्राण और अपान सोम पूषा हैं। शरीर के धातु पृथ्वी में सुवर्णादि के समान रयि हैं। शुक्र बीज और डिम्ब दिव् और पृथिवी हैं । उत्पन्न-गर्भ भुवन है । कामनाशील स्त्री पुरुष या उत्पादक तत्व ‘देव’ हैं ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - गृत्समद ऋषिः॥ १-३ सोमापूषणावदितिश्च देवता॥ छन्दः–१, ३ त्रिष्टुप्। २ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ४ स्वराट् पङ्क्तिः॥ षडृचं सूक्तम्॥
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